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[ ८ ] .. १. सुभाषितरत्न सन्दोह-इसका प्रकाशन निर्णय सागर प्रेससे हुआ था। सन् १९३२ में प्रकाशित संस्करण हमारे सामने है । हिन्दी अनुवादके साथ इसका प्रकाशन हरिभाई देवकरण ग्रन्थमाला कलकत्तासे हुआ था। ग्रन्यकारने तो अपनी प्रशस्तिमें इसे सुभाषित संदोह नाम ही दिया है। किन्तु इसका प्रकाशन इसी नामसे हुआ है और वह यथार्थ भी है। किसी कविने कहा है-'पृथिवि परतोन ही रत्न हैं-जल, अन्न और सुभाषित । किन्तु मूह लोग पत्थरके टुकड़ोंको रत्न कहते हैं। जो मनुष्य धर्म, यश, नोति, दक्षता, मनोहारि सुभाषित आदि गुण रत्नोंका संग्रह करता है वह कभी कष्ट नहीं उठाता। अतः सुभाषितके साथ रल शब्दका प्रयोग उचित ही है। संस्कृत साहित्यमें सुभाषितोंको प्रचुरता है। सुभाषितोंको लेकर भी ग्रन्थ रचना हुई है। भर्तृहरिका नीति शतक, शृङ्गार शतक और वैराग्य शतक सुभाषित त्रिशती के नामसे सुप्रसिद्ध है। जैन परम्परामें भी गुणभद्राचार्यका आत्मानुशासन, जो जीवराज ग्रन्थमालासे प्रकाशित हुआ है, वस्तुतः सुभाषित संदोह ही है। आचार्य अमितगतिने भी इस ग्रन्थ रत्नकी रचना करके सुभाषित रत्न भाण्डागारकी श्री वृद्धि ही को है। संभवतया यह उनकी प्रथम रचना हो। इसमें बत्तीस प्रकरण हैं जिनमें सांसारिक विषय, क्रोध, माया और लोभकी निन्दा करनेके साथ ज्ञान, चारित्र, जाति, जरा, मृत्यु, नित्यता, देव, जठर, दुर्जन, सज्जन, दान, मद्यनिषेध, मांसनिषेध, मधुनिषेध, कामनिषेध, वेश्या संगनिषेध, द्यूतनिषेध, आप्तस्वरूप, गुरु स्वरूप, धर्म स्वरूप, शोक, शौच, थावक धर्म, तप आदिका निरूपण सुललित प्रासाद गुण युक्त पद्योंमें विविध छन्दोंमें किया है। इसके अध्ययनसे इसके रचयिताकी वर्णन शैली, कल्पना शक्ति और कवित्व शक्ति के प्रति पाठककी श्रद्धा होना स्वाभाविक है। संस्कृत भाषा पर उनका असाधारण अधिकार है और ललित पदोंका चयन उनको विशेषता है। जिस विषय पर भी वह पद्य रचना करते हैं उस विषयका चित्र पाठकके सामने उपस्थित कर देते है। वह एक निर्मल सम्यक्त्व और चारित्रके धारक महामुनि होनेके कारण जनताको सदुपदेशामृतका ही पान कराते हैं। तदनुसार सुभाषितरत्नसंदोहके सुभाषित सचमुचमें सुभाषित ही हैं। उनके द्वारा उन्होंने मनुष्यकी असत्प्रवृत्तियोंकी बुराइयाँ दिखाकर उनकी ओरसे उसे निवृत्त करनेका ही प्रयत्न किया है । काम, क्रोध, लोभ, मदिरापान, मांसभक्षण, जुआ आदि ऐसी हो असत्प्रवृत्तियाँ हैं। तथा ज्ञानार्जन, चारित्रपालन आदि सत्प्रवृत्तियाँ हैं। ज्ञानकी प्रशंसामें वह कहते हैं
परोपदेशं स्वहितोपकार ज्ञानेन देही वितनोति लोके।
जहाति दोष श्रयते गुणं च ज्ञानं जनस्तेन समर्चेनीयम् ।।२०८॥ ज्ञानके द्वारा प्राणी दूसरोंको उपदेश देता है, अपना हित करता है। दोषोंको त्यागता है, गुणोंको ग्रहण करता है अतः मनुष्योंको ज्ञानका सम्यक् रूपसे आदर करना चाहिए।
पूरा ग्रन्थ इसी प्रकारके विविध सुभाषितोंसे भरा हुआ है।
२. श्रावकाचार-श्रावकको उपासक भी कहते हैं अत: उसका आचार उपासकाचार भी कहाता है। अमितगतिने अपनी इस कृतिको उपासकाचार नाम दिया है। किन्तु अमितगति श्रावकाचारके नामसे प्रसिद्ध है और इसी नामसे इसका प्रथम प्रकाशन मुनि श्री अनन्तकीर्ति दि. जैन ग्रन्थमाला बम्बईसे १९२२ में हुआ था। तथा उसका एक अन्य संस्करण स्व० व शीतलप्रसादजी स्मारक ग्रन्थमाला सुरतसे वि० सं० २०१५ में हुआ था । इन दोनों संस्करणोंमें संस्कृत पाठके साथ पं० भागचन्द्रजी कुत बचनिका भी है, और उसमें इसे अमितगति आचार्यकृत श्रावकाचार लिखा है। तदनुसार ही इसे यह नाम दिया गया और इस तरह यह इसी नामसे प्रसिद्ध हो गया। इसमें पन्द्रह परिच्छेद हैं और उनमें श्रावकके आचारसे सम्बद्ध विभिन्न विषयोंका वर्णन विभिन्न छन्दोंमें सरल सरस साहित्यिक भाषामें किया गया है । इस उपासकाचारसे पूर्व समन्तभद्रकृत