SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 6
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [ ७ ] अमरकीर्तिने वि० सं० १२४७ में अपना छक्कम्मोचएस ( षट्कर्मोपदेश ) नामक ग्रन्थ अपभ्रंश भाषामें रा था । । उसकी प्रशस्तिमें उन्होंने अपनी गुरु परम्परा मुनिचूड़ामणि महामुनि अमितगतिसे प्रारम्भ की है और उन्हें बहुत शास्त्रोंका रचयिता कहा है। यथा— अमिय महामुणि मुणिचूडामणि आसितित्थु समसीलषणु । विरइम बहुसत्थड कित्तिसमुत्थउ सगुणानंदिय विइभणु ॥ अमितगति के शिष्य शान्तिषेण, उनके अमरसेन, उनके श्रीषेण, श्रीषेणके चन्द्रकीर्ति और चन्द्रकीर्तिके शिष्य अमरकोति थे । यह आचार्य अमितगतिकी शिष्यपरम्परा थी । काष्ठा संघ और माथुर संघ अमितगतिने सु० र० सं० और श्रावकाचारकी अपनी प्रशस्तियों में अपने प्रगुरु नेमिषेणको माथुर संघका तिलक कहा है। और पञ्च संग्रहकी प्रशस्ति श्री माथुराणां संघः' की प्रशंसामे ही आरम्भ को है। उनकी शिष्य परम्पराका निर्देश करनेवाले अमरकीर्तिने भी अपने प्रगुरुको माथुरसंधाधिप लिखा है । अत: अमितगति माथुर संघ थे । किन्तु उन्होंने माथुर संघके साथ अन्य किसी भी गण गच्छका निर्देश नहीं किया है । भट्टारक सम्प्रदाय ( पृ० २१० ) में भी लिखा है- 'बारहवीं शताब्दी तक माथुर, बागड़ तथा लाडवागडके जो उल्लेख मिलते हैं उनमें इन्हें संघकी संज्ञा दी गई है तथा काष्ठा संघके साथ उनका कोई सम्बन्ध नहीं कहा है।' माथुर संघके सम्बन्धमें आचार्य अमितगतिका उल्लेख हमारे सामने है। आचार्यं जय सेनने सं० १०५५ में धर्म रत्नाकर रचा था । प्रायः इसी समयके लगभग आचार्य महासेनने प्रद्युम्नचरित रचा। इन दोनोंने अपनी प्रशस्तियोंमें लाट वागण (लाट वर्गट ) गणको प्रशंसा की है किन्तु काष्ठा संघका कोई उल्लेख नहीं किया । किन्तु भट्टारक सुरेन्द्र कीर्तिने, जिनका समय संवत् १७४७ है अपनी पट्टावली में कहा है कि काष्ठा संघ नन्दित, माथुर, वागड़ और लाडवागड़ ये चार गच्छ हुए । उनके ऐसा लिखनेमें तो हमें कोई भ्रम प्रतीत नहीं होता, क्योंकि उनके समय तक ये चारों गण काष्ठा संघसे सम्बद्ध हो गये थे । ग्वालियर में लिखी गई कई प्रशस्तियों में जो विक्रमकी १५वीं शतीकी हैं काष्ठा संघ, माथुर गच्छ पुष्करण का उल्लेख है । परन्तु देवसेनने वि० सं० २२० में रचे गये दर्शनसारमें जो वि० सं० ७५३ में नन्दितट ग्राम में काष्ठासंघको उत्पत्ति वत्तलाई है और उसके दो सौ वर्ष पश्चात् मथुरा में माथुरोंके गुरु रामसेनको माथुर संघका प्रस्थापक बतलाया है वही चिन्त्य है। अमितगतिके प्रशस्ति लेख तथा दर्शनसारको रचना में ६० वर्षका अन्तराल है । सु० ० सं० से ६० वर्ष पूर्व दर्शनसारको रचना हुई है और दर्शनसारके रचयिता काष्ठा संघ तथा माथुर संघसे परिचित अवश्य होने चाहिए, तभी तो उन्होंने उनका उल्लेख किया है । उनके लेखानुसार सम्बत् १५३ में मथुरा में माथुरोके गुरु रामसेनने पीछो न रखनेका निर्देश किया था। यह समय सु० र० सं० की रचनासे लगभग सौ वर्ष पूर्व पड़ता है। अमित गतिकी गुरु परम्परासे इस कालको संगति भी बैठ जाती है । किन्तु रामसेनके द्वारा माथुर संघकी स्थापना और निष्पिच्छके वर्णनका समर्थन अन्यत्र से नहीं होता । इसके सिवाय अमित गति के साहित्य में ऐसी कोई आगम विरुद्ध बात हमारे देखने में नहीं आई जिसके कारण उन्हें जेनाभास कहा जा सके। उनकी सभी रचनाएँ आगमिक परम्पराके ही अनुकूल हैं। आगे उनका परिचय दिया जाता है। १. जै० सा० ३० पु० २७६ । २. भट्टा० सं० पु० २१७ ।
SR No.090478
Book TitleSubhashit Ratna Sandoha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages267
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy