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[ २ ] रत्नकरण्ड श्रावकाचार और अमृतचन्द्रकृत पुरुषार्थ सिद्धथुपाय रचा जा चुका था। तथा आचार्य बिनसेनने अपने महापुराणमें और सोमदेव सूरिने अपने यशस्तिलक चम्भू काव्यके अन्तिम अध्यायोंमें उपासकाध्ययन नामसे श्रावकके आचारका प्रतिपादन किया था। किन्तु अमितगतिका श्रावकाचार उक सब श्रावकाचारोंसे वैशिष्ट्य रखता है। तथा उक्त सव श्रावकाचारोंसे वहत्काय भी है।
प्रथम परिच्छेदमें मनुष्य भवको दुर्लभता और धर्मको महत्ताका साधारण कथन करनेके पश्चात् दूसरे परिच्छेदमें मिथ्यात्वको त्यागनेका उपदेश करते हुए उसके बाधार भूत कुदेव आदि छह बनायतनोंका कचन करके सम्यक्त्वको उत्पत्ति और उसके महत्त्वका वर्णन है। इसके पूर्वके श्रावकाचारोंमें सम्यक्त्वका इतना विस्तारसे विवेचन नहीं है। इस विवेचनमें करणानुयोगका भी अनुसरण किया गया है । सम्यक्त्वको उत्पत्तिका क्रम, उसके छूटनेके वादको अवस्था, उसके भेद, स्थिति, आदि सभी आवश्यक जानकारी दी गई है।
जीव अजीव आदि तत्वोंके श्रद्धान पूर्वक सम्यक्त्व होता है अतः तीसरे अध्यायके प्रारम्भमें जोवके भेदोंका विवेचन करते हुए दोइन्द्रिय तेइन्द्रिय आदि जीवोंके नाम अमृतचन्द्रक तत्त्वार्थसारकी तरह दिये गये है। तथा चौदह मार्गणा और गुण स्थानोंके नाम भी दिये हैं। आगे आस्रव तत्त्वके वर्णनमें तत्वार्थ सूत्रके छे अध्यायके अनुसार प्रत्येक कर्मक भास्रवके कारण कार्योका विवेचन किया है। इसी तरह आगे भी प्रत्येक तत्त्वके सम्बन्ध तत्वार्थ सूत्रके अनुसार संक्षिप्त जानकारी दी है। चतुर्थ अध्यायमें चार्वाक, विज्ञानाद्वैत, ब्रह्माद्वैत, सांख्य, न्यायवैशेषिक, बौद्ध दर्शनको जीव सम्बन्धी मान्यताओंका निरसन करके सर्वज्ञाभाववादियाको समीक्षापूर्वक साकी सिद्धि की है । तथा अन्तमें गोपूजाकी समीक्षा करते हुए कहा है
मुशलं देहली चुल्लो पिप्पलश्चपको जलम् ।
देवा यैरभिधीयन्ते वज्यन्ते ते: परेत्र के ॥९६|| जो मूसल, देहली, चूल्हा, पीपल, जल आदिको देव मानकर उनकी पूजा करते हैं उनसे क्या वच सकता है। इस तरह दार्शनिक और लोकाचारकी समीक्षाको दृष्टिसे यह परिच्छेद महत्त्वपूर्ण है। सोमदेवने अपने उपासकाध्ययन में लोकमूढ़ताको समीक्षा की है किन्तु सव दर्शनोंको नहीं की। पांचवे परिच्छेदमें शावकके अष्टमूल गुणोंका वर्णन है । यहाँ भी मद्य, मांस, मधु आदिको निन्द्य बतलाते हुए अनेक विशेष बातें बतलाई हैं। रात्रि भोजनका निषेष जोरसे किया है ! छठे अव्यायमें अणुवत, गुणव्रत और शिक्षाव्रतोंका कथन है। इसमें हिंसाके त्यागको सरल बनानेके लिये जो उसके भेद किये गये हैं वे इससे पूर्वके श्रावकाचारों में नहीं देखे जाते। कहा है
हिंसाके दो भेद है-श्रारम्भी और बनारम्भी। जो गृहवाससे निवृत्त है वह दोनों प्रकारको हिंसासे वचता है किन्तु जो घरमें रहता है वह आरम्मी हिंसाको त्यागनेमें असमर्थ है । हिंसा आदिका विवेचन अमृतचन्द्रके पुरुषार्थ सिद्धथुपायसे प्रभावित है। सातवें अध्यायमें व्रतोंके मत्तीचारोंका कथन करनेके पश्चात् तीन शल्योंका वर्मन सुन्दर है।
निदान शल्यका वर्णन करते हुए कहा है जो जिनधर्मको सिदिके लिये यह प्रार्थना करता है कि मुझे अच्छी जाति, अच्छा कुल, आदि प्राप्त हो उसका यह निदान भी संसारका ही कारण है। इसी अध्यायके अन्तमें ग्यारह प्रतिमाओंका स्वरूपमात्र कहा है।
__ आठवें अध्यायमें छह आवश्यकोंका कथन है, वे हैं-सामायिक, स्तव, वन्दना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान, कायोत्सर्ग। ये ही छह आवश्यक मुनियोंके मूलगुणोंमें हैं। प्राचीन समयमें ये ही छह आवश्यक थावकोंके भी थे। इनके स्थानमें देवपूजा आदि छह आवश्यक निर्धारित होनेपर इन्हें भुला ही दिया गया। अन्य किसी भी श्रावकाचारमें इनका कथन हमारे देखनेमें नहीं आया। इन्होंके प्रसंगसे इस परिच्छदम आवश्यकोंके योग्य और अयोग्य स्थानका, आसनोंका, कालका, तथा मुद्राका कथन है। आशापुरजोने अपने अनगार