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________________ १३. सामान्यानित्यता निरूपणचतुविंशतिः 328 : १३-१० ] 325) अपायकलिता तनुजंगति सापदः संपदो विनश्वरभिवं सुखं विषयज' श्रियश्चञ्चलाः । भवन्ति ज 'रसारसास्तरललोचना योषितस्तवप्यय' महो जनस्तपसि नो परेर रज्यति ॥ ७ ॥ 326) भने विहरतो ऽभवन् भवभृतो न के बान्धवाः स्वकर्मवशतो न के ऽत्र शत्रवो भविष्यन्ति था । जनः किमिति मोहितो नवकुटुम्बकस्यापवि विमुक्तजिनशासनः स्वहिततः सा भ्रश्यते ॥ ८ ॥ 327) वृढोन्नतकुचात्र या चपललोचना कामिनी शशाङ्कवदनाम्बुजा मदनपीडिता' योवने । मनो हरति रूपतः सकलकामिनां वेगतो १० न सेव जरसविता "भवति वल्लभा कस्यचित् ॥ ९ ॥ 328) इमा यदि भवन्ति नो "गलितयौवना नीरचस्तदा कमललोचनास्तरण मानिनीर्मा मुचत् विलासमदविश्वमान् १४ भ्रमति लुण्ठयत्री " जरा यतो भुवि बुधस्ततो भवति निःस्पृहस्तन्मुखे ॥ १० ॥ 13 "T ९१ श्रियः चञ्चलाः । तरललोचनाः योषितः जरसा मरसाः भवन्ति । तदपि मयं जनः परे तपसि नो रम्यति ॥ ७ ॥ भवे विहरतः भवभूतः के बान्धवाः न अभवन् । अत्र स्वकर्मवशतः के या शत्रवः न भविष्यन्ति । नवकुटुम्बकस्यापदि मोहितः विभुक्तजिनशासनः जनः किमिति स्वहिततः सदा प्रक्ष्यते ॥ ८ ॥ अत्र दृढोन्नतकुचा चपललोचना शशावदनाम्बुजा यौवने मदनपीडिता कामिनी रूपतः सकलकामिनां मनः वैगतः हरति सैव जरसादिता कस्यचित् वल्लभा न भवति ॥ ९ ॥ यदि इमाः कमललोचनाः तरुणमानिनीः गलितयौवनाः नीरुचः नो भवन्ति तदा विकासमदविभ्रमान् मा मुचत् । यतः भूवि लुण्ठ इस संसार में शरीर अनेक बुराइयोंसे भरा है । सम्पत्तियाँ आपत्तियोंसे घिरी हैं। यह विषयजम्य सुख विनश्वर है। लक्ष्मी चंचल है। चंचल नेत्रवाली स्त्रियां वृद्धावस्थाके आने पर विरस हो जाती हैं। फिर भी आश्चर्यं है कि यह मनुष्य उत्तम तपमें अनुराग नहीं करता ॥ ७ ॥ अनादिकालसे इस संसार में भ्रमण करते हुए इस जीवके अपने कर्मवश कौन बान्धव नहीं हुए और कौन शत्रु नहीं होंगे । अर्थात् अपने-अपने कर्मवश सभी जीव एक दूसरेके मित्र और शत्रु हुए हैं तथा होंगे। फिर भी न जाने क्यों यह मनुष्य नवोन कुटुम्बके मोहमें पड़कर आपत्ति में पड़ता है और जैनधर्मको छोड़कर सदा अपने हितसे भ्रष्ट होता है, बात्महित में नहीं लगता ॥ ८ ॥ इस लोक में जो स्त्री यौवन अवस्था में दृढ़ और उन्नत स्तनवाली होती है, उसकी आँखों में चपलता रहती है, मुखकमल चन्द्रमाके समान होता है, कामविकारसे पीड़ित रहती है तथा अपने रूपसे कामी जनों मन बड़े वेगसे हरती है । वही स्त्री बुढ़ापे से ग्रस्त होने पर किसीको भी प्रिय नहीं होती ॥ ९ ॥ यदि इन स्त्रियोंका यौवन न ढलता और ये कान्तिहीन न होतीं तो इन कमलके समान नेत्रवाली युवती स्त्रियों १ सत्रिय । २ स जरसा रसा । ३ स तदप्यजमहो । ४ स पर, परि । ५ स विरहितो । ६ स भवन्भ । ७ स मोहिनो । ८ स भ्रस्यते । ९ स पीडिते । १० स योगतो ! ११ स जरसादितो । १२ स गलति । १३ स मानिनी मामुचत्, " माननी, भामिनी । १४ स विभ्रमा भ्र" । १५ स ष्टमित्री । १६ स निस्पृ° ।
SR No.090478
Book TitleSubhashit Ratna Sandoha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages267
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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