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________________ सुभाषितसंवोहः [ 324 : १३-६ 322) कान्ताः किं न शशाङ्ककान्तिधवलाः सौधालयाः कस्यचित् कानोवामविराजितोयजघना' सेव्या न कि कामिनी । किं वा श्रोत्ररसायनं सुखकर श्रव्यं न गीताविक विश्वं किं तु विलोक्य मारतच सम्तस्तपः कुर्वते ॥ ४॥ 323) कृष्टेष्यासविमुक्तमार्गणगतिस्थेयं जने योवनं कामान् कुलभुजङ्गकायकुटिलान् विद्युच्चलं जीवितम् । अङ्गारा"नलतप्तसूतरसवव दृष्ट्वा थियो ऽप्यस्थिरा निष्कम्यान सुबुसयो परतपः कतुं बनान्तं गताः ॥ ५ ॥ 324) वपुष्यसनमस्यति प्रसभमन्तको जीवितं धनं नृपसुतावयस्सनुमा जरा यौवनम् । वियोगवहनः सुखं समवकामिनीसंगचं तपापि मत मोहिनों दुरितसंग्रहं कुर्वते ॥६॥ मशीयमन्तविरसं सौख्यं वियोग न कुर्यात् कः नाम चाषिषणः [एतत् ] विमुष्य दुश्वरं तपः कुर्यात् ॥ ३ ॥ पाशाङ्ककान्तिपवलाः सौषालयाः कस्यचित् कारताः न किम्। काञ्चीदामविराजितोराणघना कामिनी सेव्या न किम् । वा सुखकरं श्रोत्ररसायनं गीतादिकं प्रव्यं न किम् । किंतु विश्व मास्तचलं विलोक्य सम्तः तपः कुर्वते ।। ४॥ जने कुष्टेष्वासविमुक्तमार्गणगतिस्पर्य यौवनं, कुखभुजङ्गकायकुटिलान् कामान्, विधुचलं जीवितं, बनारानलप्तप्तसूतरसद् श्रियः मपि अस्थिराः दृष्ट्या अत्र निष्क्रम्य मुद्धयः वरतपः कर्तुं वनान्तं गताः ॥ ५॥ व्यसन तनुमतां वपुः अस्पति । अन्तकः प्रसभं जीवितं अस्यति । नृपसुतादयः धनम् अस्यति । जरा यौवनम् अस्पति । वियोगदहनः समदकामिनीसंगजं सुखम् अस्यति । तपापि यत मोहिमः दुरितसंग्रहं कुर्वते ।। ६ ॥ जगति तनुः अपायकलिता । संपदः सापदः । इदं विषयकं सुखं विनश्वरम् । तो कौन बुद्धिमान इन सबको छोड़कर कठोर तपश्चरण करता ॥ ३ ॥ चन्द्रमाको कान्तिके समान स्वच्छ सफेद प्रासाद किसे प्रिय नहीं लगते। जिसका जघन सुन्दर मेखलासे वेष्ठित है ऐसी सुन्दर स्त्रीको कौन सेवन करना नहीं चाहता। कानोंके लिये रसायन रूप सुखकर गीत आदिको कौन सुनना नहीं चाहता। किन्तु सन्त पुरुष इस विश्वको वायुकी तरह चंचल देखकर तप करते हैं। विशेषार्थ-संसारको रमणीक वस्तुएँ सबको प्यारी लगती हैं। किन्तु उनमें स्थिरता नहीं है। सब हो विनाशीक हैं इसीसे ज्ञानी पुरुष क्षणिक सुखका मोह त्यागकर शाश्वत सुखके लिये प्रयत्न करते हैं ॥ ४ ॥ बुद्धिमान् पुरुषोंने देखा कि मनुष्यका यौवन चढ़े हुए धनुषसे छूटे हुए बाणको गसिके समान अस्थिर है। कामभोग कुब हुए सर्पके शरीरके समान कुटिल हैं। जीवन बिजलीकी तरह चंचल है । लक्ष्मी भी अंगारेकी आग पर तपाये हुए पारेके समान अस्थिर है। यह देखकर बुद्धिमान् पुरुष इन सबको त्याग उत्कृष्ट तप करनेके लिये वनमें चले गये ॥ ५॥ प्राणियोंके शरीरको रोग खा जाता है। यमराज बलपूर्वक जीवनको अस लेता है । धनको राजा पुत्र आदि छीन लेते हैं। यौवनको बुढ़ापा ग्रस लेता है। मदमत्त नारियोंके संसर्गसे होनेवाले सुखको वियोगरूपी आग नष्ट कर देती है। फिर भी खेद है कि मोही पुरुष पापका संचय करते हैं। अर्थात् ये सब विनाशीक हैं फिर भी मनुष्य इनके मोहमें पड़कर पापकार्य करता है और इस तरह पापकर्मका संचय करके मर जाता है ।। ६ ॥ स अपनाः, जपनाः । २ स कामिनो । ३ स कुष्टे । ४ स यने । ५ स अंगादा, ६स बपुर्वस्पति, मस्पति । ७ स दहन । ८ स मौहिनौ ! ९ स दुरतसंग्रह।
SR No.090478
Book TitleSubhashit Ratna Sandoha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages267
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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