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________________ 606 : २४-११ ] २४. वेश्यासंगनिषेषपञ्चविंशतिः 501) श्रीकृपामतितिद्युतिफोतिप्रीतिकान्तिसम'तापटुताधाः। योषितः परिहरन्ति क्षेष पण्यपोषिति विषक्तमनस्कान् ॥६॥ 602) या करोति बहुचाटुशतानि व्यवातरि जने प्यकुलीने । निधनं त्यजति काममपि स्त्री तो विशुवषिषणा न भजन्ति ॥७॥ 603) उत्तमो ऽपि फुलमो ऽपि मनुष्यः सर्वलोकमाहितोऽपि बुधो ऽपि । वासतां भजति यो भजमानस्तां भवन्ति गणिका किमु सन्तः ॥ ८॥ 604) मा विचित्रविटकोटिनिवृष्टा मद्यमांसनिस्तासिनिष्टा । कोममा बसि चेतसि पुष्टाहा भवन्ति गमिका न बिशिष्टाः ॥९॥ 605) यासंग्रहपरातिनिष्टा सत्यशोषसमधर्मबहिष्ठाः । सर्वदोषनिस्यातिनिकृष्टा' सांभयन्ति गणिकां किमु शिष्टाः ॥१०॥ 606) या कुलोनमकुलोनममान्य" मान्यमाभितगुनं गुणहीनम् । वेति नो कपटसंकटचेष्टा सा व्रजन्ति मणिकां किमु शिष्टाः ११॥ योषितः रुषेव परिहरन्ति ॥६॥ या स्त्री अकुशीने अपि पवातरि जने बह पाटशवानि करोति । मिर्षन कामम् अपि रयति । तां विशुद्धधिषणाः न भजन्ति ॥ ७॥ यो मजमान: मनुष्य: उत्तमोपि दुसाः अपि सर्वलोकहितः अपि बुषः अपि दासता भजति । सन्तः तां गणिका भजन्ति किमु ॥ ८॥ या विचित्रविटकोटिनिवृष्टा, मामांमनिरता, अतिनिकृष्टा, वचसि कोमला, चेतसि दुष्टा, तां गणिका विशिष्टाः न भवन्ति ॥ ९॥ या वर्षसंग्रहमरा बतिनिषष्टा, सत्यक्षोश्चमधर्मबहिष्ठा, सर्वदोषनिलया, असिनिकृष्टा तो गषिको शिष्टाः पयन्ति किम् ॥ १०॥ या कुलीनम् अकुलीनम्, मान्यम् बमान्यम्, मानिसगुणं गुणहीनं नो वेत्ति, या कपटसंकटचेष्टा, तां गणिकां शिष्टाः सन्ति किम् ॥ ११॥ कुसनोऽपि यावत् वेश्यामें आसक्त है, उनको लक्ष्मी, दया, बुद्धि, धृति (धेय) द्युति, कोति, प्रीति, कान्ति, समता और निपुणता आदि स्त्रियाँ मानों क्रोधसे ही छोड़ देती हैं। अभिप्राय यह है कि वेश्यासक्त पुवकी लक्ष्मी, दया एवं बुद्धि आदि सब कुछ नष्ट हो जाता है ॥ ६ ॥ जो स्त्री (वेश्या) धन देनेवाले नीच पुरुषकी भी सैकड़ों प्रकारसे खुशामद करती है तथा कामके समान सुन्दर भी निर्धन मनुष्यको छोड़ देती है उस वेश्याका निर्मकबुद्धि मनुष्य सेवन नहीं करते हैं ॥ ७॥ जिस वेश्याको सेवन करनेवाला मनुष्य उत्तम, कुलीन, सन लोगोंसे पुलिस और विद्वान हो करके भी सेवकके समान बन जाता है उस वेश्याका क्या सज्जन मनुष्य सेवन करते हैं ? नहीं करते ।। ८ ।। जो वंश्या अनेक प्रकारके करोड़ों व्यभिचारियोंके द्वारा सेवित होती है, मद्य और मांसमें अनुरक्त होती है, अतिशय निकृष्ट होती है, तथा वचनमें कोमल व मनमें दुष्ट होती है; उसको सज्जन मनुष्य कभी सेवन नहीं करते हैं ॥ ९॥ जो वेश्या धनके संग्रहमें लीन होतो है, व्यभिचारी जनसे अतिपाय सेवित होती है; शौच, शम और धर्मसे बहिर्भूत होती है, शमस्त दोषोंसे सहित होती है, तथा इसीलिये जो अतिशय निन्द्य समझी जाती है। उसका क्या कभी शिष्ट जन आश्रय लेते हैं ? नहीं लेते ॥ १०॥ जो वेश्या कुलीन और अकुलीन, मान्य और अमान्य तथा गुणवान और गुणहीन पुरुषों में विवेक नहीं रखती है; उस कपटपूर्ण माचरण करनेवाली वेश्याका क्या सज्जन पुरुष सेवन करते हैं ? नहीं करते ॥ ११ ॥ कुलीन भी मनुष्य वेश्याको १ स 'शम° । २ स बहुधादुशतानि । ३ स कुलेने । ४ स स्त्री। ५ स कोमलो, कोमले। ६ स दुष्टो । ७ स कृष्टा । ८ स वहिष्टा । ९ स क्वष्टा, निलयादिनिष्टा । १. समान्यमन्यमा । ११ स चेष्टा ।
SR No.090478
Book TitleSubhashit Ratna Sandoha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages267
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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