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________________ [607 : २४-१२ १६६ सुभाषितसंदोहः .. 607) तायवेव वयितः कुलजो ऽपि याचदर्पयति भूरिधनानि । येशुवत्त्यजति निर्गतसारं तत्र हो किमु सुखं गणिकायाम् ॥ १२ ॥ 608) तावदेव पुरुषो जनमान्यस्ताववाश्रयति चारुगुमश्रीः।। तावदामनति धर्मवासि यायवेति न वशं गणिकायाः ॥१३॥ 609) मन्यते न धनसौख्यविनाशं नाम्युपैति गुरुसज्जनवाश्यम् । नेक्षते भवसमुद्रमपारं दारिकापितमना गप्तबुद्धिः ॥ १४ ॥ 610) धारिराशिसिकतापरिमाण सर्पराविजलमध्यगमार्गः।। ज्ञायते व निखिलं ग्रहचर्क नो मनस्तु चपलं गणिकायाः ॥ १५ ॥ 611) या शुनोव बहुचाटुशतानि दानतो' वितनुतो मशभक्षा । पापकर्मजनिता कपटेष्ठा यान्ति पम्पवनिता न बुषास्ताम् ।। १६ ॥ 612) मद्यमांसमलविन्धमशौचं नीघशोकमुखसुभ्यनवलम् । यो हि सुम्थति' मुखं गणिकाया नास्ति तस्य सदृशो ऽतिनिकृष्टः" ॥ १७ ॥ भूरिधनानि अर्पयति तावत् एव स दयितः। ही, या निर्गतसारम् क्षुवत् त्यजति, तत्र गणिकायां सुखं स्यात् किमु ॥ १२॥ | पुरुषः यावत् गणिकायाः वशं न एति, तायवेव जनमान्यः । तावत् पारुगुणोः [ तम् ] आधयति । तावत् [सः ] धर्मवासि आमनति ।। १३ ।।दारिकार्पितमनाः गतवृद्धिः धनसोल्यविनाशं न मन्यते, गुरुसज्जनवाक्यं न अभ्युपैति, अपार भवसमुद्रं न ईक्षते ॥ १४ ।। वारिराशिसिकतापरिमाणं, सर्पराविजलमध्यगमागः, निखिलं महचक्रं च ज्ञायते । तु गणिकाया. चपलं मनः नो शायते ॥ १५ ।। मलभक्षा शुमीव या दानतः बहुचाटुशताति वितनते, या पापकर्मबनिता कपटेष्टा, वां पश्यवनितां बुधाः न यान्ति ॥ १६ ॥ हि यः मयमांसमलदिग्धम् अशोचं नीचलोकमुखचुम्बनक्कं गणिकायाः मुसं चुम्वति, तस्य सदृशः मतिनिकृष्टः न अस्ति ।। १७ ॥ नितिशा या नरस्य जातु न विश्वसिति, तु प्रत्ययं कुरुते । कृतथ्मी उपकारम् तब तक ही प्रिय लगता है जब तक कि वह उसे बहुत-सा धन देता रहता है । जो वेश्या धनसे रहित हो जाने पर उसे रसहीन ईसके समान छोड़ देती है उस वेश्याके सेवनमें सुख हो सकसा है क्या? नहीं हो सकता है ॥१२॥ पुरुष जब तक वेश्याके वशमें नहीं होता है तब तक ही उसका मनुष्य सम्मान करते हैं, तब तक ही उत्तम गुणरूप लकभी उसका आश्रय लेती है, और तब तक ही वह धर्मवचनोंको मानता है-धर्मोपदेशको सुनसा मीर तदनुसार आचरण करता है।॥१३ ।। जिस बुद्धिहीन मनुष्यका मन वेश्यामें मासक्त है वह अपने धन और सुखके नाशको नहीं देखता है, गुरु और सज्जनके वचनको नहीं प्राप्त होता है नहीं सुनता है, तथा अपार संसाररूप समुद्रको भी नहीं देखता है ॥ १४ ॥ समुद्रकी बालुका प्रमाण जाना जा सकता है; सर्प, रात्रि और अलके मध्यसे जानेवाले मार्गको जाना जा सकता है, तथा समस्त ग्रहमण्डलको भी जाना जा सकता है। परन्तु वेश्याके चंचल चित्तको नहीं जाना जा सकता है ॥ १५ ॥ जो वेश्या मलको खानेवाली कुत्तोके समान घनके निमित्त सैकड़ों प्रकारसे बहुत खुशामद करती है, पाप कर्मसे वेश्या हुई है, तथा जिसे कपटाचरण हो प्रिय रहता है उसे ज्ञानी जन स्वीकार नहीं करते हैं ॥ १६ ॥ जो वेश्याका मुख मद्य व मांससे लिप्त, अपवित्र एवं नीच जनके चमनेमें तत्पर रहता है उस मुखका जो मनुष्य चुम्बन करता है उसके समान नीच दूसरा कोई नहीं है ॥ १७ ॥ कपटाचरणमें चतुर जो वेश्या मनुष्यका कभी विश्वास नहीं करती है, परन्तु उसे विश्वासका १स व्येसुव । २ स हो । ३ स °वाज्यं । ४ स °मना मपि । ५ सपरिपाणां । ६ स दामतो।' ७ स कपटेष्टा । ८ स येन for यो हि। ९ स चुबित, बुवितं । १० स तेन tor तस्य । ११ स पि नकृष्टः, न्य for °ति ।
SR No.090478
Book TitleSubhashit Ratna Sandoha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages267
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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