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________________ 618 : २४-२३ ] २४. वेश्यासंगनिषेघपचविशतिः 613 ) या न विश्वसिति जातु नरस्य प्रत्ययं तु कुरुते निकृतिशा' । नोपकारमपि वेत्ति कृतघ्नी करत स्त्यजत तां खलु वेश्याम् ॥ १८ ॥ 614) रागमोक्षणयुगे तनुकम्पं बुद्धिसत्व 'धनवीर्यविनाशम् । या करोति कुशला त्रिविधेन तां त्यनम्ति गणिकां मंदिरां वा ॥ १९ ॥ 615 ) योपता पनप राग्निशिखेव वित्तमोहनकरी मदिरेव । बेकारण पदुश्शुरिकेव तां भजन्ति कथमापणयोवाम् ॥ २० ॥ 616) सर्व सौख्यव तपोधनचौरी' सर्वदुःखनिपुणा जनमारी । "मत्यंत करिबन्धनवारी निर्मितात्र विधिना पण नारी ॥ २१ ॥ 617) श्वव सुरसा कपाटं यात्र मुक्तिसुखकाननवह्निः । तत्र दोषcent गुणनत्रौ कि अयन्ति सुखमापणनार्याम् ॥ २२ ॥ 618) यन्निमित्तमुपयाति मनुष्यो वास्यमस्यति फुलं विदधाति । कर्म निन्दितमनेकमसज्ज : " सा न पण्यवनिता श्रवणीया ॥ २३ ॥ ૧૬૭ अपि न वेत्ति, तां वेश्यां खलु दूरतः त्यजत ।। १८ ।। कुशला या मंदिरा वा ईक्षणयुगे रागं, तनुकम्पं बुद्धिसत्त्वधनवीर्यविनाशं करोति तां गणिकां मदिरां वा त्रिविधेन त्यजन्ति ॥ १९ ॥ या अग्निशिखा इव उपतापपरा, मदिरा इव चित्तमोहनकरी, छुरिका इव देहदारणपटुः । ताम् आपणयोषां कथं भजन्ति ।। २० ।। अत्र विधिना आपणनारी सर्वसौख्यदतपोधनचौरी, सर्वदुःखनिपुणा जनमारी, मर्त्यमत्तरिबन्धनवारी निर्मिता ॥ २१ ॥ अत्र या श्वभ्रवर्त्म, सुरस कपाटं, मुक्तिसुखकाननवह्निः । दोषवसती गुणरात्री तब मापणनाय [ जनाः | सुखं श्रयन्ति किम् ॥ २२ ॥ बलज्जः मनुष्यः मन्निमित्तं दास्यम् उपयाति कुलम् अस्यति, अनेकं निन्दितं कर्म विदधाति सा पुण्यवनिता न श्रयणीया ।। २३ ।। जगति दुःखदान ज्ञान कराती है; तथा जो कृतघ्न होकर दूसरोंके द्वारा किये गये उपकारको भी नहीं जानती है— उसको भूल जाती है, उसको आप लोग दूरसे ही छोड़ दें ॥ १८ ॥ जो चतुर वेश्या मदिराके समान दोनों नेत्रोंमें लालिमाको शरीरमें कम्पको करती है तथा बुद्धि, बल, घन एवं वीर्यका विनाश करती है उसका सज्जन मनुष्य मन, वचन और कायसे परित्याग करते हैं ॥ १९ ॥ जो वेश्या अग्निकी ज्वालाके समान संतापको उत्पन्न करती है, मदिरा के समान मनको मुग्ध करती है, तथा छुरीके समान शरीरको विदीर्ण करती है उस वेश्याका भला विद्वान् मनुष्य कैसे सेवन करते हैं ? अर्थात् उसका सेवन विद्वान् मनुष्य कभी नहीं करते हैं, किन्तु अविवेकी जन ही उसका सेवन करते हैं ॥ २० ॥ यह ब्रह्माने वेश्याको सब प्रकारके सुखको देनेवाले तपरूप घनको चुरानेवाली, सब दुःखोंके देने में दक्ष, मनुष्योंको नष्ट करनेके लिये मारि ( प्लेग आदि संक्रामक बीमारी } के समान तथा मनुष्यरूप मदोन्मत्त हाथीको बाँधनेके लिये वारी ( गजबन्धनी) के समान बनाया है ॥ २१ ॥ जो वेश्या यहाँ नरकका मार्ग है- नरकगतिको प्राप्त करानेवाली है, स्वर्ग प्रवेशके लिये कपाटके समान है - स्वर्ग प्राप्तिमें अतिशय बाधक है, मोक्ष सुखरूप वनको भस्म करनेके लिये अग्निके समान है, दोषोंका घर है, तथा गुणोंका शत्रु है – उनको नष्ट करनेवाली है; उस वेश्याके संग से क्या सुख मिल सकता है ? कभी नहीं ॥ २२ ॥ मनुष्य जिस वेश्या के निमित्तसे दासताको प्राप्त होता है, कुलको नष्ट करता है, तथा निर्लज्ज होकर अनेक निन्द्य १ स जानि । २ स निकृतज्ञा । ३ स दूरतस्तां त्यजत । ४ सयुते । ५ स बुद्धिस्तवजन', 'जनवीर्यं । ६ स गणिका । ७ स मदिरेव मंदिरे वा, मदिरा वा । ८ स दारुण, दारण्यदु छु । ९ स चोरी । १० स ० म । ११ स विधिनापननारी, विधिना परनारी । १२ स स्वभ्रव । १३ स "सुरलक्ष्म° १४ स धर्म [ धर्मनि° ] । १५ सलज्जं ।
SR No.090478
Book TitleSubhashit Ratna Sandoha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages267
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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