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अमितगति-विरचितः
सुभाषितसंदोहः
[ १. विषयविचारैकविंशतिः ]
1) जनयति सुदमन्तर्भव्यपाथोरुहाणां हरति तिमिरराशि या प्रभा भानवी । कृतनिखिल पदार्थद्योतना भारतीड़ा वितरतु धुतोष साईती भारतीयः ॥ १ ॥ 2 ) न सदरिभिराजः केसरी केतुरुप्रो नरपतिरतिरुः कालकूटो ऽतिरौद्रः ।
अतिकुपितकृतान्तः पावकः पनगेन्द्रो यदिह विषयशश्रुर्युः स्वमुत्रं करोति ॥ २ ॥
अन्वयः -- धुतदोषा (घुताः विनाशिता दोषाः रागादयो यथा सा, पक्षे धुता विनाशिता दोषा रात्रिः यथामा, तथोक्ता ) कृतनिखिल पदार्थद्योतना भानवी (भानोः सूर्यस्य इयं भानवी) प्रभेव या मध्यपाथोरुहाणाम् अन्तः मुदं जनयति, या तिमिरराशिं हरति सा इद्धा (दीता) भारती व आर्हती भारती वितरतु ॥ १ ॥ इह विषय यात्रुः यत् उग्रं दुःखं करोति तत् अरिः इमराजः केसरी उम्रः केतुः अतिरुष्टः नरपतिः अतिरौद्रः कालकूटः अतिकुपितकृतान्तः पावकः पन्नगेन्द्रः न करोति ॥ २ ॥
[हिन्दी अनुवाद ]
सरस्वती सूर्यकी प्रभाके समान है। जिस प्रकार सूर्यकी प्रभा श्रुतदोषा है - दोषा (रात्रि ) के संसर्गले रहित है उसी प्रकार सरस्वती भी धुतदोषा - अज्ञानादि दोषोंको नष्ट करनेवाली है, जिस प्रकार सूर्यकी प्रभा समस्त पदार्थों को प्रकाशित करती है उसी प्रकार सरस्वती भी समस्त पदार्थको प्रकाशित करती है, सूर्यकी प्रभा यदि कमलोके भीतर मोद (विकास) को उत्पन्न करती है तो सरस्वती भव्य जीवोंके अन्तःकरणमें मोद (हर्ष) को उत्पन्न करती है, तथा सूर्यप्रभा यदि तिमिरराशिको अन्धकारसमूहको नष्ट करती है तो सरस्वती भी तिमिरराशिको प्राणियों के अज्ञानसमूहको नष्ट करती है। इस प्रकार प्रदीप्त सूर्यको प्रभाके समान वह समृद्ध सरस्वती आपके लिये जैन त्राणीको प्रदान करे। अभिप्राय यह है कि सरस्वतीकी उपासनासे वह अरहन्त अवस्था प्राप्त हो जिसमें अपनी दिव्य वाणीके द्वारा समस्त संसारका कल्याण किया जा सकता है ॥ १ ॥ संसार में विषयरूपः शत्रुजिस तीव्र दुःखको उत्पन्न करता है उसे शत्रु, गजराज, सिंह, क्रुद्ध केतु, अतिशय कोषको प्राप्त हुआ राजा, अत्यन्त भयानक कालकूट विष प्रचण्ड यमराज, अग्नि और अतिशय विषैला सर्प भी नहीं उत्पन्न कर सकता है ॥ विशेषार्थ -- संसारमें शत्रु आदि दुःख देनेवाले प्रसिद्ध हैं । परन्तु वे शत्रु आदि जितना दुःख देते हैं उससे अधिक दुःख विषयरूप शत्रु देता है। कारण कि शत्रु आदि तो केवल एक ही
१ स मानवों च । २स 'पदार्थों । ३ स साहुती ।