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657 : २६-१६ ]
२६. आप्तविचारद्वाविंशतिः
656 ) त्यक्त्वा पद्मास निन्द्यां मबनशरहतो गोपनारों 'सिषेवे निद्राविद्राणचित्तः कपटशतमयो दानवारातिघातो । रागद्वेषावधूतो पतिसुतरये सारथिर्यो ऽभवसं कुर्वाणं प्रेम वियतिशयं नाप्तमाहुर्मुरारिम् ॥ १५ ॥ 657) यः कन्तु सप्तचित्तो विकलितचरणो ऽष्टावक्त्रत्वमाप नानानाप्रयोगे त्रिदशपतिवधू वत्तवीक्षा "कुलाः । कुद्धश्चिच्छेव शम्भुक्तियवचनतः पचमं यस्य वक्त्रं
स 'ब्रह्मासो ऽतिनीचः प्रणिगवत कथं कम्यते तस्वयोः ॥ १६ ॥
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धियः आप्तं कथं वदन्ति ॥ १४ ॥ यः अनिन्द्यां पद्मां त्यक्वा मदनशरहृतः गोपनारी सिषेवे । निद्राविवाणचित्तः कपटशतमयः दानवारातिघाती रागदेषानभूतः यः पतिसुतरचे सारथिः अभवत् । बिटवत् नार्या॑म् अतिशयं प्रेम कुर्बाणं तं मुरारिम् आप्तं न आहुः ।। १५ ।। यः नानानाट्यप्रयोगे त्रिदशपतिवधूदत्त वीक्षा कुलाक्षः कन्तु तप्तचित्तः क्रुद्धः शम्भुः यस्य पश्च दक्त्रं विच्छेद । सः अतिनीचः ब्रह्मा तत्वबोधः कथम् आप्तः कथ्यतं प्राणिगदत ॥ १६ ॥ यः प्रतिदिनं भ्रान्त्वा असुरैः
दाहक निर्दिष्ट किया गया है। उसके सम्बन्धमें श्रीभागवत आदिमें निम्न प्रकार कथानक पाया जाता है - पूर्वकालमें देवोंने जब असुरोंको जीत लिया था तब वे मायावियोंके उत्कृष्ट माचार्य मयके पास पहुंचे। उसने सुवर्ण, रजत एवं लोमय तीन अदृश्य पुरोंका निर्माण करके उनके लिये दिये। उन्होंने उक्त पुरोंसे अलक्षित रहकर पूर्व केरके कारण स्वामियोंके साथ लोन लोकों को नष्ट कर दिया। तब स्वामियोंके साथ लोकोंने महादेवकी उपासना की । महादेवने देवोंको 'तुम डरो मत्त' कहकर बनुषपर बाणोंको चढ़ाया और उन पुरोंके ऊपर छोड़ दिया । उक्त बाणोंसे विद्ध होकर उन पुरोंमें रहनेवाले वे देत्य गतप्राण होकर गिर गये । महायोगी मने उन असुरोंको लाकर पुरत्रयमें स्थित सिद्ध अमृतरसके कूपमें रख दिया। वे उस रसको छूकर दृढ़ शरीरको प्राप्त होते हुए उठकर खड़े हो गये । तब विष्णु, गाय और ब्रह्मा वत्स होकर पुरत्रयमें प्रविष्ट हुए। वहाँ उन्होंने रसकूपके अमृतका पान किया । असुरोंने विष्णुकी मायासे मोहित होकर उन्हें नहीं रोका। तब विष्णुने अपनी शक्तियोंसे शिदके लिये युद्धके उपकरण स्वरूप रथ, सारथि और धनुष-बाण आदिको किया । महादेव सुसज्जित होकर रथपर बैठ गये। उन्होंने धनुषपर बाणको आरोपित करके मध्याह्नकालमें उक्त पुरत्रयको भस्म कर दिया || १४ || जिसने निर्दोष लक्ष्मीको छोड़कर कामके बाणोंसे पीड़ित होते हुए ग्वाल स्त्रीका सेवन किया है, जिसका चित्त निद्रासे विद्राण ( सुप्त ) है, जो सैकड़ों कपटस्वरूप है, देत्यरूप शत्रुओं का नाश करतेवाला है, राग-द्वेषसे कलुषित है, इन्द्रके पुत्र अर्जुनके रयपर सारथिका काम करता रहा है तथा जो स्त्रीके साथ जारके समान अतिशय प्रेम करता है उस विष्णुको विद्वान् आप्त नहीं कहते हैं ॥ १५ ॥ जो ब्रह्मा अनेक नाटयों के प्रयोग में इन्द्रकी पत्नियोंके देखने में नेत्रोंको देता हुआ व्याकुल रहा है, जो कामसे सन्तप्त होकर संयमसे रहित होता हुआ चार मुखोंको प्राप्त हुआ है तथा महादेवने असत्यभाषणके कारण क्रुद्ध होकर जिसके पाँचवें मुखको काट डाला है; उस अतिशय नीच ब्रह्माको तत्वज्ञ जन आप्त कैसे कहते है, यह बत्तलाइये ॥१६॥
१. स नारी शिखेव । २ सनाय । ३ स श्रानानाय कुलादयः । ६ स ब्रह्माप्नोतित्रीन: प्तातिवीजः t ७ स प्रणिगदित ।
द्य", "नाट्यप्रयोग । ४ स वधूं । ५ स वीक्ष्या