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________________ [653 : २६-१२ १७८ सुभाषिससंदोहः 653) व्याध्याधिव्याघकोणे विषयमृगगणे कामकोपादिसपें कुःखक्षोणी रुहाढये भवगहनबने भ्राम्यते येन जीवः । ये तत्स्त्रीमद्यमांसत्रयमिदमधिपा निन्दनीयं भजन्ते देवाश्चेत्ते ऽपि पूज्या निगवत' सुधियो निन्विताः के भवेयुः ॥ १२॥ 654) निद्राचिन्ताविवाश्रममवन मवस्वेवसेवप्रभाव - क्षुद्रागद्वेषतृष्णामृतिजननजराव्याषिशोकस्वरूपाः । पस्यैते ऽष्टादशापि त्रिभुवनभवभूष्यापिनः सन्ति दोषा स्तं देवं नाप्तमाहुर्ननिपुणषियो मुक्तिमार्गाभिषाने ॥ १३ ॥ 655) 'रक्तार्वेभेन्द्रकृति नदति गणपतो यः श्मशाने गहीत्वा निस्त्रिशो मांसमसि त्रिभुवनविना दक्षिणे नाननेन । गौरीगङ्गाङ्गसङ्गो त्रिपुरवहनकृदयविध्वंसवभ-- स्तं वं रौद्ररूपं कथममलषियो निन्धमाप्तं वदन्ति ॥ १४ ॥ पादिसर्प दुःखक्षोणीमहाळमे भवगहनवने जीयः भ्राम्यते, तद् इदं निन्दनीयं स्त्रीमधमासत्रयं ये अधिपाः भजन्ते, ते देवाः अपि पूज्याः चेत् [हे ] सुषियः निगदत, निन्दिताः के भवेयुः ॥ १२॥ यस्य निद्राचिन्ताविषादश्रममदनमदस्वेदखेदप्रमाद क्षुद्रागद्वेषतृष्णामृतिजननजराव्याधिशोकस्वल्पाः रिभुवनभवव्यापिनः एते अष्टादश अपि दोषाः सन्ति, तं देवं नयनिपुणघियः मुक्सिमागाभिधाने आप्तं न आहुः ॥ १३ ॥ यः गणवृतः रक्ताभेन्द्रकृति गृहीत्वा श्मशाने नटति, निस्त्रिशः त्रिभूधनविना मांसं दक्षिणेन आमनेन अत्ति, गौरीगङ्गाङ्गसंगी, त्रिपुरवहनकुत्, दैविध्वंसदक्षः, तं रोद्ररूपं निन्यं रुद्रम् अमल रूप गहन वनमें परिभ्रमण करता है जो कि व्याधि (शारीरिक पीड़ा) व आषि ( मानसिक पीड़ा ) रूप भीलोंसे व्याप्त, इन्द्रियविषयरूप मृगोंके समूहसे सहित, काम एवं क्रोध आदिरूप साँसे परिपूर्ण तथा दुःखोंरूप वृक्षोंसे सधन रहता है; उन निन्दनीय तीनोंका जो स्वामी बनकर सेवन करते हैं वे यदि देव होकर पूज्य बन सकते हैं तो हे सद्बुद्धि मनुष्यो! यह कहिये कि फिर निन्दित प्राणी कौन होंगे। तात्पर्य यह है कि जो नीच जनके समान स्त्री, मांस एवं मद्यका सेवन किया करते हैं वे देव कभी नहीं हो सकते, अन्यथा देव और निन्दित जनों में कोई भेद ही नहीं रहेगा ॥ १२ ॥ जिसके निद्रा, चिन्ता, विषाद, श्रम, काम, मद, स्वेद, खेद, प्रमाद, क्षुधा, राग, द्वेष, तृष्णा, मरण, जन्म, जरा, रोग, और शोक; ये तीनों लोकोंके प्राणियोंको व्याप्त करनेवाले अठारह भो दोष नहीं होते हैं उसे नयके ज्ञाता मोक्षमार्गके निरूपणमें देव बतलाते हैं, इसके विपरीत जो उन अठारह दोषोंसे रहित नहीं होता है वह आप्त नहीं हो सकता है, इसोलिये उसे मोक्षमार्गके प्रणेता होनेका अधिकार नहीं है ॥ ३ ॥ जो निर्दय रुद्र ( शिव ) रुधिरसे गोले गजराअफे चर्मको ग्रहण करके प्रमयादि गणोंसे वेष्टित होता हुआ श्मशानमें नाचसा है, जो दक्षिण मुखसे तीनों लोकोंके प्राणियोंके मांसको खाता हैप्रलय करता है, जो पार्वती एवं गंगाफे अंगसे संगत है-उन्हें अपने शरीरपर धारण करता है, तीन पुरोंको दग्ध करनेवाला है, तथा दैत्योंके विनाशमें दक्ष है; उस भयानक वेषके धारक निन्द्य रुद्रको निर्मलबुद्धि मनुष्य कैसे आप्त कहते हैं ? अर्थात् वह कभी आप्त नहीं हो सकता है ॥ १४ ॥ विशेषार्थ यहाँ महादेवको त्रिपुरका १ स दुखद्राणी । २ स निगदित । ३ स मदाश्वेद । ४ स प्रमादा । ५ स ते। ६ स रक्तादे', रक्ताभद्रकृति, रक्तादेवेंद्र, रक्ताद्रे, । ७ स नटयति । ८ दक्षणेन', दक्षिणो नाननेन ।
SR No.090478
Book TitleSubhashit Ratna Sandoha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages267
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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