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________________ २३. कामनिषेधपञ्चविंशतिः 587: २३-१७ ] 582) चिन्तनकीर्तन' भाषण के लिस्पर्शनवर्शनविभ्र महास्यैः । अष्टविधं निगदन्ति मुनीन्द्राः काममपाकृतकामविबाधाः ।। १२ ।। 583) सर्व जनैः कुलजो जनमान्यः सर्वपदार्थविचारणवक्षः 1 मन्मथबाण विभिन्नशरीरः क न नरः कुरुते जननिन्द्यम् ॥ १३ ॥ 584) अह्नि रविवहति त्वचि वृद्धः पुष्पधनुर्वहति प्रबलोढम् । रात्रिविनं पुनरन्तरमन्तः संवृतिरस्ति रथेनं तु कन्तोः ॥ १४ ॥ 585) स्थावरजङ्गमभेदविभिन्नं जोवगणं विनिहन्ति समस्तम् । निष्करुणं कृतपात कचेष्टः कामवशः पुरुषो ऽतिनिकृष्टः ॥ १५ ॥ 586) निष्ठुरमश्रवणीयमनिष्टं वाक्यमसह्यमवद्य महृह्यम् । जल्पति 'धक्रमवाच्यमपूज्यं मद्यमवाकुलवन्मदनातः ॥ १६ ॥ 587) स्वायंपरः परदुःखमविद्यन्प्राणसमा न्यपरस्य घनानि । संसृतिदुःख विधाय विदित्वा पापमनङ्गशोहरते ऽङ्गी ॥ १७ ॥ १६१ शवेगविधूतः जननिन्धः अपास्तमतिः जनः असह्यम् अनन्तम् अवाच्यं दुःखं न लभते किम् ॥ ११ ॥ अपाकृतकाम विवाधा मुनीन्द्राः चिन्तनकीर्तन भाषण के लिस्पर्शन दर्शनविश्व महास्यैः अष्टविधं कामं निगदन्ति ॥ १२ ॥ कुलजः सर्वजनैः जनमान्यः सर्वपदार्थ विचारणवशः मन्मथ वाणविभिन्नशरीरः नरः जननिन्थं किं न कुरुते ।। १३ ।। अह्नि वृद्धः रविः त्वचि दहति । पुनः पुष्पधनुः रात्रिंदिनं प्रबलोकम् अन्तरम् अन्तः दहति । रवेः संवृतिः अस्ति तु कन्तोः न ।। १४ । कामवशः अतिनिकृष्टः पुरुषः कृतपातकचेष्टः स्थावरजङ्गमभेदविभिन्नं समस्तं जीवगणं निष्करुणं निहन्ति ।। १५ ।। मदनाः मद्यमदाकुलवत् निष्ठुरम् अश्रवणीयम् अनिष्टम् असह्यम् अवधम् अहृद्यं वक्रम् अवाच्यम् अपूज्यं वाक्यं जल्पति ।। १६ ।। अनङ्गवशः स्वार्थ किस असह्य, अनन्त एवं अनिर्वचनीय दुखको नहीं प्राप्त होता है ? अर्थात् वह सब ही दुःसह दुःखोंको भोगता है ।। १०-११ ॥ जो मुनीन्द्र कामको बाधासे रहित हो चुके हैं वे चिन्तन, कीर्तन, भाषण, केलि, स्पर्शन, दर्शन, विभ्रम और हास्य इसप्रकारसे कामके आठ प्रकार बतलाते हैं ॥ १२ ॥ जो मनुष्य सब जनोंसे आदरणीय, कुलीन और समस्त पदार्थोंका विचार करने में समर्थ हो करके भी कामके बाणोंसे छेदा मेदा गया है वह कौन-से लोकनिन्द्य कार्यको नहीं करता है ? अर्थात् वह निन्द्य कार्यको करता ही है ॥ १३ ॥ सूर्य उदयको प्राप्त होकर दिनमें बाह्य चमड़े के भीतर दाह उत्पन्न करता है, परन्तु कामदेव प्रबलता से धारण किये गये ( या विवाहित ) पुरुषको रात-दिन भीतर जलाता है— उसके अन्तःकरणको सन्तप्त करता है। सूर्यका आवरण हो सकता है-छत्री आदिके द्वारा उसके तापको रोका जा सकता है, परन्तु कामका आवरण नहीं है - उसके वेगको नहीं रोका जा सकता है ॥ १४ ॥ कामके बशोभूत हुआ अतिशय हीन पुरुष पाप चेष्टाओं को करके निर्दयतापूर्वक स्थावर और जसके भेदों में विभक्त समस्त प्राणिसमूहको नष्ट करता है ||१५|| कामसे पीड़ित मनुष्य मद्यको पीकर उसके नशेसे उन्मत्त हुएं पुरुषके समान कठोर, श्रवणकटु, अनिष्ट, असह्य, पापस्वरूप, अमनोहर; कुटिल, निन्द्य एवं न कहने योग्य वाक्यको बोलता है ।। १६ ।। कामके वशीभूत हुआ प्राणी दूसरोंके दुखका अनुभव न करके स्वार्थ में लीन होता हुआ उनके प्राणोंके समान प्रियधनको हरता है । इससे जो उसके संसार दुखको बढ़ाने वाला पाप होता है उसकी भी वह परवाह नहीं करता है ।। १७ । जो १ स कीर्ति । २ स विधि | ३ स भगति । ४ स ' वाणभिन्न । ५ स हि । ६ स वचवृद्धं शुचिवृद्धः । ७ सापक° । ८ स वक्तुं for वक्रं । ९ स विद्वान् १० स समान" । सु. सं. २१
SR No.090478
Book TitleSubhashit Ratna Sandoha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages267
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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