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________________ १६० सुभाषितसंदोहः [576 : २३-६ 576) सर्वजनेन विनिन्दितमतिः सर्वविचारबहिर्भवबुद्धिः'। सर्वजनप्रथितां निजकीति मुशति कन्तुयशो गतकान्तिः ॥६॥ 577) भोजनशान्ति विहाररताना सामन'साषवतां श्रमणानाम् । आममपा मिव पात्रमपात्रं ध्वस्तसमस्तसुखो मवनातः।। ७ ।। 578) चारगुणो विविताखिलशास्त्रः कर्म करोति कुलीनविनिन्द्यम् । भातृपितृस्वजनान्यजनाना नेति वशं मदनस्प बशो ना ॥८॥ 579) तावदोषविचारसमर्थस्तावरण्डितमृच्छति' मानम् । तावरपास्तमलो मननीयो याववनङ्गवशो न मनुष्यः ॥९॥ 580) शोचति विश्वमभीच्छति प्रष्टुमाषयति ज्वरमृच्छति" वाहम् । मुश्चति भक्तमुपैति विमोह मायति वेपति याति मृति ॥१०॥ 581) एकमपास्तमतिः क्रमतोत्र पुष्पषनुवंशवेगविषतः।। किन जनो लभते जननिन्यो" दुःसमसामनन्तमवाच्यम् ।। ११ ॥ नैति । एक क्षणं वर्षसमम् अवैति ॥ ५ ।। सर्वजनेन विनिन्दितमूर्तिः सर्वविचारबहिर्भवबुद्धिः गतकान्तिः कन्सुवशः सर्वजनप्रपिता निजकीर्ति मुवति ।। ६ ।। आम पात्रम् अपाम् इव ध्वस्तसमस्तसुखः मवनात: भोजनशान्तिविहाररताना सजनसाधुवा श्रमणानाम् अपात्रं भवति ।। ७ ॥ चारुगुणः विदिताखिलशास्त्र: ना मदनस्य वशः कुलीनविनिन्धं कर्म करोति च मातृपितृस्वजनान्यजनानां वशं न एति ।। ८ 1 यावत् मनुष्पः अनावशी न [ भवति ] तावत अशेषविचारसमर्थः तावत् अखण्डितं मानं ऋच्छति तावत् अपास्तमलः मननीयः भवति ॥ ९ ॥ [ अनङ्गवशी नरः ] शोषति, विश्वं द्रष्टुम् अभीच्छति । ज्वरम् आश्रयति, दाहम् ऋच्छति, भक्तं मुञ्चति, विमोहम् उपति, माद्यति, वेपति, मृति न याति ॥ १० ॥ एवं पुष्पधनुर्द मनुष्यको सबलोग निन्दा करते हैं, उसकी बुद्धि सब योग्यायोग्यके विचारसे बहित होती है, तथा वह दीप्तिसे रहित होकर समस्त जनमें प्रसिद्ध अपनी कीतिको छोड़ता है-नष्ट करता है।॥ ६ ॥ जिस प्रकार कच्चा मिट्टीका बर्तन अल रखनेके योग्य नहीं होता है उसी प्रकार कामसे पीड़ित मनुष्य समस्त सुखसे रहित होकर उन मुनियोंके अथवा उनके धर्म (मुनिधर्म ) के योग्य नहीं होता है जो कि भोजन, शान्ति एवं विहार में तत्पर रहते हुए सज्जन व कुलीन जनोसे सहित होते हैं ।। ७॥ जो मनुष्य कामके वशीभूत हुआ है वह उत्तम गुणोंसे सहित और समस्त शास्त्रोंका जानकार हो करके भी ऐसे अयोग्य कार्यको करता है जिसको कि कुलीन जन निन्दा किया करते हैं। वह माता, पिता, कुटुम्बी जन और अन्य जनोंके वशमें नहीं होता है॥ ८॥ मनुष्य जब तक कामके वशमें नहीं होता है तब तक हो वह समस्त योग्यायोग्यके विचारमें समर्थ होता है, तब तक हो उसकी अखण्डित प्रतिष्ठा रह सकती है, और तब तक ही वह निर्दोष होकर मननीय भी होता है ।।९॥ कामके यशमें हुआ निबुद्धि मनुष्य शोक करता है चिन्तन करता है, विश्वको देखनेकी इच्छा करता है, [ दोषं निःश्वासोंको छोड़ता है, ] ज्वरका आश्रय लेता है, दाहको प्राप्त होता है, भोजनका त्याग करता है, म को प्राप्त होता है, उन्मादसे युक्त होता है, कांपता है, और अन्तमें मृत्युको प्राप्त हो जाता है। इस प्रकार क्रमसे इन कामके दश वेगोंसे पीड़ित होता है । ठीक है-कामान्ध मनुष्य लोगोंके द्वारा निन्दित होकर १स मुदिः । २ स कीर्ति । ३ स om. °निन्दित- कान्तिः । ४ स "शाति', 'सीति", "शीति , शीत । ५ स सज्जन सा । ६ स सज्जन', घमणाना, श्रवणानां । ७ स बाममया। ८ सभा for ना 1 ९ स मूच्छिति । खण्डित मूर्छति । १० समभीष्टति, मतिष्ठति । ११ स ज्वरमिछति । १२ स भक्तु , मक्ति । १३ स निद्ये ।
SR No.090478
Book TitleSubhashit Ratna Sandoha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages267
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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