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________________ २३. कामनिषेधपञ्चविंशतिः ] 571) यानि' मनस्तनुजानि जनानां सन्ति जगत्रितये ऽप्यसुखानि । कामपिशाचवशीकृतचेतास्तानि नरो लभते सकलानि ॥१॥ 572) ध्यायति धावति कम्पनियति धाम्यति ताम्यति नश्यति नित्यम् । रोदिति सीवति जल्पति दोन गायति नृत्यति मूर्छति कामी ॥२॥ 573) रुष्यति तुष्यति दास्यमुपैति कर्षति पोष्यति सौव्यति वस्त्रम् । किन करोत्ययका हतबुद्धिः कामयशः पुरुषो जननिन्धम् ॥ ३॥ 574) वेत्ति न धर्ममधमनियति म्लायति शोचति याति कृशत्वम् । नीचजनं भजते 'बजतोयां मन्मथराजविदितचित्तः ॥ ४ ॥ 575) नैति रति गहपत्तनमध्ये प्रामधनस्वजनाम्यजनेषु । वर्षसम क्षणमेकमवैति पुष्पषनुशतामुपयातः ॥ ५ ॥ ___ जगत्रितये अपि जनानां यानि मनस्तनुजानि असुखानि सन्ति कामपिशाचवशीकृतचेताः नरः तानि सकलानि लभते ।। १ ।। कामी नित्यं ध्यायति, पारति, कम्पम् यति थाम्पति, ताम्पति, नश्यति, रोदिति, सीदसि, दीनं जल्पति, गायति, नृत्यति, मूछति ॥ २॥ कामवशः हतबुद्धिः पुरुषः सष्यति, तुष्यति, दास्यम् उपति, कर्षति, दीव्यति, वस्त्र मोष्यति । अथवा जननिन्धं किं न करोति ॥ ३ ॥ मम्मपराजविदितचित्तः धर्म न वेत्ति, अधर्मम् इयति, म्लायति, शोवति कृसत्वं माति, नीधजनं भजते, ईष्या नजति ॥ ४॥ पुष्पधनुर्वशताम् उपयातः गृहपत्तनमध्ये ग्रामधनस्वजनान्यजनेषु रति __ तीनों लोकोंमें प्राणियोंके मानसिक व शारीरिक जो भी दुःख हैं उन सबको कामरूप पिशाचसे पीड़ित हुआ मनुष्य प्राप्त करता है ॥ १॥ कामी मनुष्य निरन्तर कामके विषयमें चिंतन करता है, इसके लिये दौड़ता है, कम्पनको प्राप्त होता है, परिश्रम करता है, सन्तप्त होता है, नष्ट होता है, रोता है, विषाव करता है, दोन वचन बोलता है, गाना गाता है, और मूर्छाको प्राप्त होता है ।। २॥ वह क्रोधको प्राप्त होता है, सन्तुष्ट होता है, सेवा करता है, खेती करता है, जुमा गावि खेलता है और वस्त्रको सीता है । अथवा ठीक है-कामके वशीभूत हुआ दुर्बुद्धि मनुष्य कौन-से लोकनिन्ध कार्यको नहीं करता है ? अर्थात् वह सब ही लोकनिन्द्य कार्योंको करता है ।। ३ ।। जिस मनुष्यका मन कामसे पीडिस होता है वह धर्मके स्वरूपको नहीं जानता है, अधर्मको प्राप्त होता है, खिन्न होता है, शोक करता है, दुर्बलताको प्राप्त होता है, नीच जनकी सेवा करता है, और ईर्ष्याको धारण करता है ।। ४ । जो मनुष्य कामको पराधीनताको प्राप्त हुआ है वह घर और नगरके भीतर स्थित होकर गांव, धन, कुटुम्बी जन तथा अन्य मनुष्योंके विषयमें अनुराग नहीं करता है। यह एक क्षणको वर्षके समान समझता है, अर्थात् उसका एक-एक क्षण बड़े कष्टसे बीतता है ॥ ५॥ कामके वशीभूत हुए मजामि।२स जातिजनाना। ३ सथामति। ४स रोदति । ५ सदानं । ६स °वशो।७स om. °मधर्म । ८स शोचमति । ९ स वजत्पुय्या ।
SR No.090478
Book TitleSubhashit Ratna Sandoha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages267
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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