SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 41
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 102 : ५-२० ] ५. इन्द्रिय रागनिषेधविंशतिः 102 ) येनेन्द्रियाणि विजिताभ्यतिदुर्धराणि तस्याभिभूतिरिह नास्ति कुतो ऽपि लोके । वाच्यं च जीवितमनर्थविमुक्तमुक्तं पुंसो विविक्तमतिपूजिततत्त्वबोधैः ॥ २० ॥ * ॥ इतीन्द्रिय रागनिषेधविंशतिः ॥ ५ ॥ २७ तनयं च अन्यजनं कदाचित् नो मन्यते ॥ १९ ॥ इह लोके येन अतिदुर्धराणि इन्द्रियाणि विजितानि तस्य कुतः अपि अभिभूति नास्ति । अतिपूजिततत्त्वबोधः तस्य पुंसः जीवितं माध्यम् अनयविमुक्तं च विविक्तम् उक्तम् ।। २० । ॥ इतीन्द्रियरागनिषेधविमतिः ॥ ५ ॥ गुरुजन, पिता, माता, भाई, सगोत्री, श्री, मित्र, बहिन, दास, खामी, पुत्र और दूसरे जनको भी कभी नहीं मानता है [ अभिप्राय यह कि वह योग्यायोग्यके विवेकसे रहित होकर पूज्य पुरुषोंका भी निरादर किया करता है ] || १९ ॥ जिस भव्य जीवने इन दुर्जय इन्द्रियोंको जीत लिया है उसका यहां लोकमें किसी से भी अभिभव ( तिरस्कार ) सम्भव नहीं है। जिनका तस्वज्ञान अतिशय पूजित है ऐसे महापुरुष उस जितेन्द्रिय जीवके प्रशंसनीय जीवनको शुद्ध एवं अनर्थसे रहित बतलाते हैं ॥ २० ॥ इस प्रकार बीस श्लोकोंमें इन्द्रियरागनिषेधका कथन हुआ ॥ ५ ॥ १ व बि, ति for भि । २ स पुंसां । ३ स निषेक", इतीन्द्रियनिग्रहोपदेशः ।
SR No.090478
Book TitleSubhashit Ratna Sandoha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages267
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy