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________________ [ ६. स्त्री [ गुण ] दोषविचारपञ्चविंशतिः ] 103) उद्यन्बन्ध' परमसुखरसा' कोकिलालापजल्पां* पुष्पसौकुमार्या कुसुमशरवधूं रूपतो निर्जयन्तीम् । सौख्यं सर्वेन्द्रियाणामभिमतमभितः कुर्वतीं मानसेां सत्सौभाग्याँल्लभन्ते' कृतसुकृतवशाः कामिनीं मर्त्यमुख्यः ॥ १ ॥ 104 ) अक्ष्णोर्युग्मं विलोकान्मृदुतनुं गुणतस्तर्पयन्ती शरीरं दिव्यामोवेन artiदपगतमरुता नासिकां चारुवाचा । श्रोत्रद्वन्द्वं मनोशासनमपि रसादयन्ती" मुखाब्जं यद्वत्पञ्चाशसौख्यं चितरति युवतिः कामिनां नान्यदेवम् ॥ २ ॥ 105) या मथाङ्घ्रिपृष्ठारुणचरणतला वृसजङ्घा वरोरुः स्थूलश्रोणीनितम्बा प्रविपुलजघना दक्षिणावर्तनाभिः । इन्द्रास्त्रामध्या कनककुकुचा पारिजावर्तकण्ठा पुष्पस्नम्बाहुयुग्मां शशधरषदना पक्वबिम्बाधरोष्ठी ॥ ३ ॥ . कृतसुकृतवशाः मर्त्यमुख्याः सत्सौभाग्यात् उयगन्धप्रबन्धां परमसुखरसां कोकिलालापचस्पां पुश्पससौकुमार्या रूपतः कुसुमशरवधूं निर्जयन्त सर्वेन्द्रियाणाम् अभिमतं सौख्यम् अमितः कुर्वती मानसेष्टां कामिनीं कमन्ते ॥ १ ॥ विलोकात् अक्ष्णोः युग्मं मृदुतनुगुणतः शरीरं वक्त्रात् अपगतमरुता दिव्यामोदेन नासिकां चाचाचा भोत्रद्वन्दं, मुखान्नम् अर्पयन्ती (सती) मनोशात् रसात् रसनम् अपि तर्पयन्ती युवतिः कामिनां यद्वत् पञ्चाक्षसौख्यं वितरति एवम् अन्यत् न ( वितरति ) ॥ २ ॥ या मांहि (मि) पृष्ठा, अरुणचरणतळा, पुत्तनमा, वरोरूः, स्थूलश्रोणीनितम्ब, विपुलघना, दक्षिणावर्तनाभिः इन्द्रास्त्रश्चाममध्या, कनककुट (कलश) कुचा, वारिचावर्तकण्ठा, पुष्पसग्बाहु युग्मा, शशधरवदना, पक्वचिम्बाधरोष्ठी, संशुम्भत्पाण्डुगण्डा, प्रचक्तिहरिणीलोचना, कीरनासा, सच्येष्वासानतभ्रूः जिस खीसे सुगन्ध उत्पन्न हो रही है अर्थात् जो घ्राण इन्द्रियको सुखकर है, जिसका रस अतिशय सुखोत्पादक है अर्थात् जो अधरोष्ठपानादिके द्वारा रसना इन्द्रियको सन्तुष्ट करनेवाली है, जो कोयळके समान मधुरवाणी बोलकर कानोंको आनन्दित करनेवाली है, जो फूलोंके समान सुकुमार शरीरके द्वारा स्पर्शन इन्द्रियको तृप्त करनेवाली हैं, तथा जो सुन्दरतासे कामदेवकी प्रिया ( रति ) को भी जीतकर चक्षु इन्द्रियको सुखप्रद है; इस प्रकारसे जो सब ओरसे सबही इन्द्रियोंके लिये अभीष्ट सुख को उत्पन्न करनेवाली तथा मनको भी अभीष्ट है उस बीको सौभाम्यसे पुण्यशाली श्रेष्ठ मनुष्यही प्राप्त करते हैं ॥ १ ॥ युवति स्त्री देखनेसे कामी जनके दोनों नेत्रोंको संतुष्ट करती है, शरीर के मृदुता ( सुकुमारता ) गुणसे शरीर ( स्पर्शन इन्द्रिय) को सन्तुष्ट करती है, मुखसे निकलनेवाली दिव्य सुगन्धयुक्त वायुसे प्राणको सन्तुष्ट करती है, मधुर वाणी से दोनों कानोंको सन्तुष्ट करती है, तथा अपने मुखकमलको देकर मनोहर रससे रसना इन्द्रियको भी सन्तुष्ट करती है । इस प्रकार कामी जनकी पांचोंडी इन्द्रियोंको जैसे युवति श्री सुख देती है वैसे अन्य कोई I १ स प्रबन्धाः, प्रबन्धा। २ सरसः, रसाः । स जल्पाः, "करूपा । ४ स कुमार्याः । ५ स जयंती: "जयंती । ६ स कुतीर्मा, कुर्वती मानश्रेयशः, मानसेष्ट ७ स सौभाग्यान्, "भाग्या । ८ स लभती । ९स कामिनी, कामिनी । १० मुख्य मुख्या ११ स तन । १२ स वक्प्रादुध", "दुए"। १३ स मनोन्या" मनोक्षा", रशन, मनोशा दशनमा रसा तर्पयन्ती । १४ स रसादतीमुखा । १५ स "देव । १६ स कूर्मोचांहि । १७ सदक्षणा । १८ सयाम १९स 'पुट' for "कुछ" ।
SR No.090478
Book TitleSubhashit Ratna Sandoha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages267
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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