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________________ -.-- -. १०० सुभाषितसंदोहः [371 : १४-२९ 366) धनधान्यकोशनिचयाः सर्वे जीवस्य सुखकृतः सन्ति । भाग्येनेति विविस्था विदुषा न विधीयते खेवः ॥ २४ ॥ 367) देवायत्तं सर्व जीवस्य सुखासुखं त्रिलोके ऽपि । बुवेति शुद्धधिषणाः कुर्वन्ति ममःक्षति' नात्र ॥ २५ ॥ 368) वातुं हतुं किंचित् सुखासुखं नेह कोऽपि शक्नोति। त्यक्त्वा कम पुरा कतमिति मत्वा नाशुभं कृत्यम् ॥ २६ ॥ 369) नरबरसुरवरविद्याधरेषु लोके न दृश्यते को ऽपि । शक्नोति यो निषेधु भानोरिय कर्मणामुदयम् ।। २७॥ 370) कयितजनेन वियोग संयोग खलजनेन जीवानाम् ।। सुखदुःखं व समस्तं विधिरेव निरङ्कुशः कुरुते ॥२८॥ 371) अशुभोदये जनानां नश्यति बुद्धिर्न विद्यते रक्षा। सुहृदो ऽपि सन्ति रिपवो विषमविषं जायते ऽप्यमृतम् ॥ २९ ॥ शक्यते ।। २३ ।। भाग्येन सर्वे धनधान्यकोशनिचयाः जीवस्य सुखकृतः सन्ति । इति विदित्वा विदुषा खेदः न विधीयते | ।। २४ ॥ त्रिलोके अपि सर्व सुखासुखं जीवस्य देवायत्तम् इति वृद्ध्वा शुद्धषिषणाः अत्र मनः सतिं न कुर्वन्ति ॥ २५ ॥ इह पुरा कृतं कर्म त्यावा कः अपि किंचित् सुखासुखं दातुं हर्तुं न शक्नोति । इति मत्वा अशुभं न कृत्यम् ॥ २६ ॥ लोके | नरवरसुरवरविद्याधरेषु कः अपि न दृश्यते । यः भानोः उदयम् इव कर्मणाम् उदयं निषेधु शक्नोति ॥ २७ ॥ निरयाः विधिः एव जीवाना दयितजनेन वियोग खलजनेन संयोग समस्तं सुखदुःखं च कुरुते ॥ २८ ॥ अशुभोदमे जनानां दुद्धिः | नश्यति, रक्षा न विद्यते, सुहृदः अपि रिपवः सन्ति । अमृतम् अपि विषमविषं जायते ॥ २९ ।। लोके पुष्यविहीनस्य देहिनः | उसका फल अवश्य ही भोगना होता है। उसे कोई रोक नहीं सकता ॥ २३ ॥ धन धान्य और खजाना ये सब | भाग्यके अनुकूल होने पर ही जीवको सुखदायक होते हैं। यह जानकर ज्ञानीको खेद नहीं करना चाहिये । अर्थात् धन धान्यादिके होते हुए भी यदि कोई दुःखी है तो उसका भाग्य अनुकूल नहीं है ऐसा जानकर उसे | खेद नहीं करना चाहिये। क्योंकि एक ओर लाभान्सरायका क्षयोपशम होनेसे उसे धान्य सम्पदा प्राप्त है | किन्तु दूसरी ओर भोगान्सरायका और असाता वेदनीयका उदय होनेसे वह उसका उपभोग करके सुखी नहीं | होता ।। २४ ॥ तीनों लोकोंमें जावका सब सुख दुःख देवके अधीन है ऐसा जानकर शुद्ध बुद्धिवाले पुरुष उसके | विषयमें अपने मनको खेद खिन्न नहीं करते ॥ २५ ।। पूर्व में किये गये कर्मको छोड़ इस लोकमें कोई भी किचित् भी सुख या दुःखको देनेमें या हरने में समर्थ नहीं है । अर्थात् इस जन्ममें न कोई व्यक्ति या देवता या ईश्वर न तो जीवको सुष या दुःख दे सकता है और न उसे हर सकता है। सुख दुःख देना या हरना मनुष्यके पूर्वजन्ममें किये शुभ अशुभ कर्मोके अधीन है। अतः ऐसा जानकर मनुष्यको बुरे काम नहीं करना चाहिये ॥२६॥ जिस प्रकार इस लोकमें मनुष्यों, देवों और विद्याधरों में कोई ऐसा नहीं है जो सूर्यके उदयको रोक सके, उसी तरह कर्मोके उदयको भी कोई अन्य पुरुषश्रेष्ठ या देवोत्तम या विधाधर नहीं रोक सकता ॥ २७ ।। जीवोंका प्रियजनोंसे वियोग, दुष्टजनोंसे संयोग और समस्त सुख दुःख देव ही करता है। उस पर किसीका अंकुश नहीं है ।। २८ ॥ अशुभ कर्मका उदय होने पर मनुष्योंकी बुद्धि नष्ट हो जाती है। रक्षाका कोई उपाय नहीं रहता। १ स सुकृतः । २ स om, न। ३ स क्षिति। ४ स . किंचित् । ५ स नो शुभं । ६ स उदयः, उदनं । ७ स om प्य, ल्वमतं ।
SR No.090478
Book TitleSubhashit Ratna Sandoha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages267
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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