________________
१३०
सुभाषितसंदोहः
[457 : १८-१० 457 ये कारुण्यं विवधति' जने सापकारे ऽनपेक्षा
मान्याचारा जगति विरला मण्डनं ते धरित्र्याः। ये कुर्वन्ति ध्रुवमुपकृति स्वस्वकृत्यप्रसिद्ध
माः सन्ति प्रतिगृह ममो काश्यपीभारभूताः ॥ ८॥ 458) सम्यग्धर्मव्यवसितपरः पापविध्वंसदक्षों'
मित्रामित्रस्थित सममनाः सौल्यवुःखै कचेताः । ज्ञानाम्यासात प्रशमितमवक्रोघलोभप्रपञ्चः
सवृत्ताडयो मुनिरिव जने सज्जनो रामते ऽत्र ॥ ९॥ 459) यः प्रोत्तुङ्गः परमगरिमा स्थैर्यवान्या नगेन्द्रः
पमानन्दी विहताडिमा" भानुववधूतवोषः। शीतः सोमा"मृतमयवपुश्चन्द्रवद्वान्तघाती
पुण्याचारो जगति सुजनो भात्यसो ख्यातकीतिः ॥१०॥ अमी काश्यपीभारभूताः माः प्रतिगृहं सन्ति ।। ८ ॥ बत्र बने सम्यग्धर्मव्यवसितपरः, पापविध्वंसदक्षः, मित्राभित्र स्थित-! सममनाः, सौख्यदुःखकचेताः, सानाम्यासात् प्रशमितमदकोषलोभप्रपञ्चः, सवृत्तादयः मुनिरिव सज्जनः राजते ॥ ९॥ नगेन्द्रो वा यः जगति स्थैर्यवान् प्रोत्तुङ्गः परमगरिमा, यः भानुवत् पमानन्दी, विहतमहिमा धूतदोषः, यः चन्द्रवत् शीतः निश्चयतः अपने स्वार्थकी सिद्धिके लिये दूसरोंका उपकार करते हैं वे पृथ्वीके भारभूत मनुष्य प्रत्येक घरमें विद्यमान हैं बहुत हैं ॥ ८॥ यहाँ लोकमें सज्जन मनुष्य मुनिके समान शोभायमान होता है। कारण यह कि जैसे मुनि समीचीन धर्मके व्यवसाय (आचरण) में लीन रहता है वैसे ही सज्जन भी उसमें लीन रहता है, पापके, नष्ट करनेमें जैसे मुनि समर्थ होता है वैसे ही उसमें सज्जन भी समर्थ होता है, मित्र और शत्रुकी स्थितिमें जिसप्रकार मुनिका मन समान रहता है-राग-द्वेषसे सहित नहीं होता है उसी प्रकार सज्जनका मन भी उक्त शत्रु और मित्रकी स्थितिमें समान ही रहता है, यदि सुख और दुखमें मुनि एकचित्त-हर्ष-विषादसे रहित होता है तो सज्जन भी उनमें एकचित्त रहता है, जिसप्रकार ज्ञानके अभ्याससे मद (गर्व), क्रोध और लोभके विस्तारको मुनि शान्त करता है उसी प्रकार सज्जन भी उन्हें शान्त करता है, तथा जिसप्रकार समीचीन आचरणसे सहित मुनि होता है उसी प्रकार उससे सहित सज्जन भी होता ही है ॥ ९॥ जो सुमेरुके समान उन्नत, अतिशय गुरुत्वको धारण करनेवाला एवं स्थिर होता है जो सूर्यके समान निर्दोष, पद्यानन्दो एवं जडिमाको नष्ट करने वाला है तथा जो चन्द्रमाके समान शोत, सोम व अमृतमय शरीरसे सहित और अन्धकारको नष्ट करनेवाला है; वह उत्तम आचारवाला सज्जन लोकमें सुशोभित होता है। उसकी प्रसिद्ध कीति समस्त दिशाओंको व्याप्त करती है ॥ १० ॥ विशेषार्थ-जिसप्रकार सुमेरु उन्नत (ऊंचा), अतिशय गरिमा (भारीपन) से सहित और स्थिर (अडिग) है उसी प्रकार सज्जन भो उन्नत उत्तमोत्तम गुणोंका धारक, गरिमा (आत्म गौरव) से सहित
और स्थिर-सम्पत्तिव विपत्तिमें समान तथा भोग्य मार्गसे विचलित न होनेवाला होता है; अतएव वह सुमेरुके समान है। जिसप्रकार सूर्य पद्मानन्दो-कमलोंको विकसित करनेवाला, जडिमा (शैत्य) का विघातक और धूत
१स विश्धते । २ स सापकारिनयेक्षा, शाप पेक्षा, कारणपेक्षा । ३ स मपकृति । ४ स सिद्धौ । ५ स प्रतिग्रह। ६ स दक्षो। ७ स स्थिरसम°। ८ स जनो। ९ स यत्रो ११० स गरिमास्थ । ११ स विहितपडिमो। १२ स सोमो।