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________________ [ १६. जीवसंबोधनपञ्चविंशतिः 401) सर्पस्स्वान्त'प्रसूतप्रततत मतमः स्तोममस्तं समस्तं सावित्रीव प्रदोमिनयति वितनुते पुण्यमम्पटिनस्ति। सूते संमोधमैत्री'अतिसुगति मतिनीधिता कान्तिकोति कि किंवा नो विषत्ते जिनपति पदयोमुक्तिकों च दृष्टिः॥१॥ 402) शुश्रूषामाश्रय त्वं' दुषजनपदों याहि कोपं विमुद्र ज्ञानाम्यासं कुष्य त्या विषयरि धर्ममित्रं भजात्मन् । निस्त्रिशत्वं जहाहि व्यसनविमुखतामेहि मोति विधेहि श्रेयशेवस्ति पूतं परमसुखमयं कम्युमिच्छास्तदोषम् ॥२॥ __जिनपतिपदयोः दृष्टिः सावित्री प्रदीप्तिः इव समस्तं सर्पत्स्वान्तप्रसूतप्रतततमतमःस्तोमम् अस्तं नयति,, पुण्यं वितते, अन्यत् हिनस्ति, गंमोदमंत्रीद्युतिसुगतिमतिश्रीश्रिता सती कान्तिकीति सूते । मुक्विकी च सा कि कि मो विद्यते ॥ १ ।। हे आत्मन्, अस्सदोषं परमसुखमयं पूतं श्रेयः लब्धम् इक्छा अस्ति घेत त्वं शुश्रूषाम् आश्रय, बुधजनपदवीं याहिं, कोप विमुञ्च शाना यासं कुरुष्व, निषपरिपुत्सब, धर्ममित्रं भज, निस्त्रिंशत्वं ब्रहीहि, व्यसनविमुखताम् एहि, नीति विहि ॥ २ ॥ हे 1 इतात्मन्, तारुण्योद्रेकरम्यां दृढकठिनकुचां पनपत्रायताक्षी स्थूलोपस्थी शशिमुखी परस्त्री वीक्ष्य किमिति खेदं प्रयासि । जिनेन्द्र देवके चरणोंका दर्शन (जिनभक्ति ) अन्तःकरणमें उत्पन्न होकर विस्तारको प्राप्त हुए समस्त । अज्ञानको इस प्रकारसे नष्ट कर देता है जिस प्रकार कि इसलोकमें फैले हुए समस्त अन्धकारको सूर्यकी प्रभा नष्ट कर देती है। वह पुण्यको विस्तृत करता है, पापको नष्ट करता है, तथा प्रमोद, मैत्री, कान्ति, उत्तम गति, बुद्धि और लक्ष्मोका आश्रय लेकर कान्ति व कोक्ति को उत्पन्न करता है। ठीक है जो बिनचरणोंका दर्शन मुक्तिको भी प्राप्त करा देता है वह अन्य क्या क्या नहीं कर सकता है ? सब कुछ कर सकता है ॥ १॥ हे आत्मन् ! यदि तुझे पवित्र, निर्दोष एवं उत्तम सुखस्वरूप मोक्षको प्राप्त करनेको इच्छा है तो तू जिनदेवादिको आराधना कर ( अथवा बिनवाणीके सुननेकी इच्छा कर ), विद्वानोंके मार्गका अनुसरण कर, क्रोषको छोड़ दे, शानका अभ्यास कर, धर्मरूप मित्रकी सेवा कर, निर्दयताको छोड़ दें, विषयोंसे विरक्तिको प्राप्त हो, और न्याय मार्गका अनुसरण कर ॥२॥ हे मूर्ख आत्मन् ! जो परस्त्री यौवनके प्रभावसे रमणीय दिखती है, जिसके स्तन दृढ़ एवं कठोर हैं, जिसके नेत्र पद्मपत्रके समान लम्बे हैं, जिसकी योनि स्थूल है, तथा जिसका मुख चन्द्र के समान आनन्द जनक है; उसको देखकर तू क्यों खेदको प्राप्त होता है। यदि तुझे सुन्दर शरीरको धारण करने वाली स्त्रियोंकी इच्छा है तो तू अन्य सब कार्यको छोड़कर पुण्यका उपार्जन कर । कारण यह कि १ स सर्वत्कांतप्रसूता । २ स om. °तम । ३ सप्तमस्तोम । ४ स सूते । ५ स संमोह । ६ स मंत्रीमितिद्य । | Hom, मति । ८ स पिताकान्तिकीत्तिः। ९ स पदपो. १० स पदयो मुक्तीकर्ती, [मुक्ति"], 'मुदयोमुक्तीकर्तर, | भक्तिवर्ती। ११ सयध्वं । १२ स जहीहि ।
SR No.090478
Book TitleSubhashit Ratna Sandoha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages267
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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