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________________ १९७ 728 : २९-१७ ] २९. शोकनिरूपणाष्टविंशतिः 723) सगुणं विगुणं सघनं विधनं सवृषं विषं तरुणं ध शिशुम् । वनमध्यगताग्निसमो करुणः समवतिनृपो न परिस्यजति ॥ १२ ॥ 724) भुवि यान्ति हयद्विपमय॑जना गगने शकुनिग्रहशीतकराः। जलजन्तुगणाश्च जले बलवान् समवतिषिभुनिखिले भुवने ॥ १३ ॥ 725) विषयः स समस्ति न यत्र रवि शशी' न शिखो पवनोन तणा । मस को ऽपि न पत्र कृतान्तनृपः सकलाङ्गिविनाशकरः प्रबलः १४ ॥ 726) इति तत्त्वधियः परिचिन्त्य बुषाः सकलस्य जनस्य विनश्वरताम् । न मनागपि चेतसि संवरसे शुचमङ्ग यश-सुखनाशकराम् ॥ १५॥ 727) घनपुत्रकलत्रवियोगकरो घनपुत्रकसनषियोगमिह। लभते मनसेति विचिन्त्य घुषः परिमुअतु शोकमनथंकरम् ॥ १६ ॥ 728) यदि पुण्यशरीरसुखे लभते यदि शोककृती पुनरेति मृतः । यवि वास्य' मृतौ स्वमृतिनं भवेत् पुरुषस्य शुचात्र तवा सफला ॥१७॥ नपः सगुणं विगुणं सधनम् विधनं सवृषं विष तरुणं च शिशु न परित्यजति ।। १२॥ हयद्विपमयंजनाः मुवि यान्ति । शकुनिग्रहणीतकराः गगने (यान्ति) । च जलजन्तुगणाः जले यान्ति । समवतिविभुः निखिले भुवने बलवान् ॥ १३ ॥ यत्र रविः न, शशी न, शिखी न, तथा पवन: न, स विषयः समस्ति । यत्र सकलाङ्गिविनाशकरः प्रबलः कृतान्तनुपः न स कोऽपि (विषयः) न ।। १४ ।। तत्त्वधियः बुधाः इति सकसस्य जनस्य विनश्वरता परिचिन्त्य चेतसि अङ्गयशःसुखनाशकरां शुचं मनाक् अपि न संदघते ॥ १५ ॥ घनपुत्रकलावियोगकरः इह धनपुत्रकलवियोग लभते । इति मनसा विचिन्त्य वृषः अनर्थकरं शोकं परिमुवतु ॥ १६ ।। यदि शोककृतौ पुण्यशरीरसुख लभते, यदि मृतः पुनः एति, यदि वा अस्य मृतो स्वमतिः वनके मध्यमें लगी हुई अग्निके समान निर्दय यगकाल रूप राजा गुणवान् और निर्गुण; धनवान और निधन, धर्मात्मा और पापी, तथा तरुण और बालक किसीको भी नहीं छोड़ता है-सबको ही वह नष्ट कर डालता है ॥ १२ ॥ घोड़ा, हाथी और मनुष्य प्राणी पृथ्वीके ऊपर गमन करते हैं; पक्षी, ग्रह शनि आदि) चन्द्र आकाशमें गमन करते हैं; और मगर-मत्स्य आदि जलजन्तुओंके समूह जलके भीतर गमन करते हैं; परन्तु बलवान यमराज समस्त हो लोकमें गमन करता है-उसके पहुंचनेमें कहीं भी रुकावट नहीं है ॥ १३ ॥ वह देश यहाँ विद्यमान है जहाँपर कि न सूर्य है, न चन्द्र है, न ग्नि है और न वायु है। परन्तु वह कोई प्रदेश नहीं है जहाँपर कि समस्त प्राणियोंको नष्ट करनेवाला प्रबल यमराज रूप राजा न हो वह सर्वत्र विद्यमान है ।। १४ ॥ इस प्रकार वस्तुस्वरूपके जानकार विद्वान पुरुष समस्त प्राणियोंकी नश्वरताका विचार करके शरीर, यश और सुखको नष्ट करनेवाले उस शोकको जरा भी मनमें नहीं धारण करते हैं ॥ १५॥ दूसरोंके धन, पुत्र और स्त्रोके वियोगको करनेवाला प्राणी यहाँ अपने धन, पुत्र और स्त्रीके वियोगको प्राप्त होता है। ऐसा मनसे विचार करके विद्वान् पुरुष अनर्थके करनेवाले उस शोकका परित्याग करे ।। १६॥ यदि शोकके करनेपर मनुष्य पुण्य और शरीरसुखको प्राप्त करता है, मरा हुआ प्राणी जीवित होकर फिरसे बा जाता है, अथवा यदि इसके मरनेपर अपना मरण नहीं होता है; तो यहाँ पुरुषका शोक करना सफल हो सकता है। परन्तु वैसा होता नहीं है, अतएव उसके लिये शोक करना व्यर्थ है ॥ १७ ।। जो विचार शून्य मनुष्य किसी इष्टका वियोग १ स शशी रघो रचनं न तथा । २ स पचनं । ३ स °मङ्गय । ४ स 'करम् । ५ स °सुखं । ६ स चास्य । ७ स स्वभूतिर्भविता ! ८ स सफलं।
SR No.090478
Book TitleSubhashit Ratna Sandoha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages267
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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