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________________ 315 : १२-२३] १२ मरणनिरूपणषड्विंशतिः _313) यो लोकेकशिरःशिस्वामणिसमं सर्वोपकारोधतं' राजन्छीलगुणाकरं नरवरं कृत्वा पुननिर्वयः । पाता हन्ति निरगंलो हतमति: किं तक्रियायां फलं प्रायो निर्दयचेतसा न भवति श्रेयोमतिभूतले ॥२१॥ 314) रम्याः किन विभूतयो ऽतिललिताः सच्यामरभ्राजिताः कि वा पीनढोन्नतस्तनयुगास्त्रस्सैणदोघेक्षामाः । कि वा सज्जनसंगतिनं सुखदा 'चेतश्चमत्कारिणी किं त्वत्रानिलघूतदीपकलिकाछायाचलं जीवितम् ॥ २२॥ 315) ययेतास्तरलेक्षणा युक्तयो न स्युगलचोवना' "भूतिर्वा यदि भूभृतां भवति नो सौवामिनीसंनिभा। 'वातोधूततरंगचञ्चलमिदं नो वेद भवेज्जीवितं । को नामेह तदेव' सौल्यविमुखः कुर्याज्जिनानां तपः ॥ २३ ॥ गलः, हतमतिः पाता लोकैकशिरःशिलामणिसमं सर्वोपकारोद्यत राजच्छीलगुणाकरं नरवरं कृत्वा पुनः हन्ति । ततिक्रयायां किं फलम् । प्रायः निदयचेतसां भूतले श्रेयोमतिः न भवति ॥ २१ ॥ सच्चामरभाजिताः अतिललिताः विभुतयः रम्याः न किम् । वा अस्तैणदोघेक्षणाः पीनदृढोन्नतस्तनयुगाः [न ] किम् । वा चेतश्चमत्कारिणी सज्जनसंगतिः सुखदा न किम् । किं तु अत्र जीवितम् अनिलघुतदीपकलिकाछायाचलम् ।। २२ । यदि एताः तरलेक्षणाः युवतयः गलद्यौवनाः न स्युः, यदि वा भूभृतां भूतिः सौदामिनीसंनिभा नो भवति, इदं जीवितं वातोततरङ्गनश्चलं नो भवेत् चेत्, तदेव को नाम सोस्यविमुखः इह जिनानां तपः कुर्यात् ॥ २३ ॥ मांसासारसलालसामयगणव्यावः समध्यासितां नानापापवसुधराम्हनितां जन्माटवीम् लोकोंके मस्तक पर शिखामणिके समान, सबका उपकार करनेमें तत्पर तथा शोभनीय शील और गुणोंकी खान पुरुषोत्तम बनाता है और पीछे निर्दयतापूर्वक उसे मार डालता है । उसकी इस क्रियाका क्या फल है अर्थात् उसका पुरुषको श्रेष्ठ बनाना व्यर्थ ही है | ठोक ही है जिनका चित्त दयासे होन होता है उनकी बुद्धि प्रायः इस भूतल पर कल्याणकारी नहीं होती ।। २१ ।। इस संसारमें जीवन वायुसे कम्पिस दीपककी लौ की छायाके समान चंचल है। यदि ऐसा न होता तो समीचीन चामरोंसे शोभित अत्यन्त ललित विभूति, स्थूल तथा दृढ़ उन्नत स्तनोंसे शोभित और भयभीत मृगोके समान दोघं नेत्र-वाली स्त्रियां क्यों मनोहर नहीं होती। तथा चित्तमें चमत्कार पैदा करनेवाली सुखदायक सज्जनोंकी संगति क्यों रमणीक न होतीं। अर्थात् जीबनके क्षणभंगुर होनेसे ही संसारकी सुखदायक वस्तुओंका कोई मूल्य नहीं है । इसीसे इन्हें त्याज्य कहा है ।। २२॥ यदि चंचल नेत्रपाली युवतियोंका यौवन न ढलता होता, यदि राजाओंकी विभूति बिजलीके समान चंचल न होती, अथवा यदि यह जीवन वायुसे उत्पन्न हुई लहरोंके समान चंचल न होता तब कौन इस सांसारिक सुखसे विमुख होकर जिनेन्द्रके द्वारा उपदिष्ट तपश्चरण करता |॥ २३ ॥ १स कारंघुतं, कारद्युत। २ स निर्दयां । ३ स विभूतियो। ४ स कि ज्वा। ५ स श्वेतश्च । ६ स गलयो', ग्गलध्वौवनौ। ७ स भूतिभू यदि भू° भ° ना शो' । ८ स वातोद्धृत , पातोयूत° । ९ स तदव, तदेव ।
SR No.090478
Book TitleSubhashit Ratna Sandoha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages267
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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