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________________ ८८ सुभाषितसंबोहः [318 : १२-२६ 316) मांसासग्रसलालसामयगणव्याधैः समध्यासितां' नाना पाप'वसुंधरारहचितां जन्माटवीमाश्रितः। धावन्नाकुलमानसो निपतितो दृष्ट्वा जराराक्षसी "क्षुत्क्षामोघृतमृत्युपन्नगमुखे प्राणी किपत्प्राणिति ॥ २४ ॥ 317) मृत्युख्यानभयंकराननगतं भौतं जराव्यात स्तीवष्याधितुरन्तदुःखतमसंसारकान्तारगम् । कपाश्नोति शरीरिण' त्रिभुवने पातुं नितान्तातुरं' त्यक्त्वा जातिजरामृति क्षतिकरं जैनेन्द्रपर्मामृतम् ॥२५॥ 318) एवं सर्वजगद्विलोक्य कलित दुरवीर्यास्मना निस्त्रिशेन' समस्तसत्त्व समितिप्रध्वंसिना मृत्पुना। सद्रत्नत्रयशात''मागंणगणं१२ गहन्ति तच्छित्तये' सन्तः "शान्तषियो जिनेश्वरतपःसाम्राज्यलक्ष्मीश्रिताः ॥ २६॥ __ इति' मरणनिरूपणषड्विशतिः ॥१२॥ आश्रितः प्राणी जराराक्षसी दृष्ट्या आकुलमानसः धावन् क्षुरक्षामोदतमृत्युपन्नगमुखे निपतित: कियत्प्राणिति ॥ २४ ॥ त्रिभूवने मृत्युम्याघ्रभयंकराननगतं जराव्याधतः भीतं तीव्रव्याधिदुरन्तदुःखतरुमत्संसारकान्तारगं नितान्तातुरं शरीरिणं पातुं जातिजरामतिक्षतिकरं जैनेन्द्रधर्मामृतं त्यक्त्वा कः शक्नोति ।। २५ ।। एवं दुरवीय त्मना निस्त्रिशेन समस्तसत्वसमितिप्रध्वंसिना मृत्युना कलितं विलोक्य तच्छित्तये शास्तधियः जिनेवरतपः साम्राज्यलक्ष्मीधिताः सन्तः सदस्नत्रयशातमार्गणगणं गृहन्ति ॥ २६ ॥ इति मरणनिरूपणषड्विंशतिः ॥ १२ ॥ यह जन्मरूपी अटवी-भयानक वन मांस रुघिर आदि धातुओंके लोलुपी रोगोंके समूह रूप शिकारियोंसे व्याप्त है, नाना अपापरूपी वृक्षोंसे भरी हैं। इनमें आश्रय लेनेवाला प्राणी जरारूपी राक्षसीको देख व्याकुलचित्त हो भागता है और भागता हुआ भूखसे पीड़ित मृत्युरूपी सर्पके मुखमें गिरता है ! अब वह कितनी देर जीवित रह सकता है अर्थात् उसका अन्त निश्चित है। विशेषार्थ-जो जन्म लेता है वह यदि रोगोंसे बच भी जाता है तो बढापा उसे नहीं छोड़ता। और बुढ़ापे के पश्चात् मृत्यु अवश्य होती है ॥ २४ ॥ तीव्र रोग और कठोर दुःखरूपी वृक्षोंसे भरे संसाररूपी भयानक वनमें वृद्धावस्थारूपी शिकारीसे डरकर मृत्युरूपो व्याघ्रके भयानक मखमें चले गये प्राणीको तोनों लोकोंमें कौन बचा सकता है। उसे यदि बचा सकता है तो जन्म जरामरणका विनाश करनेवाला बिन भगवानके द्वारा उपदिष्ट धर्मामृत ही बचा सकता है। उसे छोड़ अन्य कोई नहीं बचा सकता ।। २५ ॥ इस प्रकार यह समस्त जगत् समस्त प्राणीसमुदायकाविनाश करने वाली निर्दयी मृत्युसे घिरा है जिसकी शक्तिका वारण अशक्य असा है ! यह देखकर शान्त बुद्धिवाले सन्तपुरुष जिनेश्वरके तपरूपी साम्राज्य लक्ष्मीका पाश्रय लेकर उस मृत्युके विनाशके लिये सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्ररूपी तीक्ष्ण वाणोंको ग्रहण करते हैं। विशेषार्य-मृत्युके चक्रसे छूटनेका उपाय भगवान् जिनेन्द्र के द्वारा उपदिष्ट रत्नत्रय ही है। उन्हींको धारण करनेसे उससे छुटकारा हो सकता है ।। २६ ॥ १स समाध्यासिता, समाष्याषितां । २ स गणा' । ३ सपाय । ४ स भुक्षामोद्धृत", क्षुद्रामोधर' । ५ स प्राणिभि, प्राणितिः। ६ स शरीरिणां । ७ स पातुरसंतातुर । ८ स मृतिक्षिति । १ स निर शेन । १० स तत्त्व° for सत्त्व । ११ स सात, शांत । १२ स मणं । १३ स गृहंतु । १४ स यक्षित्तये, यक्छित्तये, यच्छित्तय, यरीतयेत्सं० १५ स शात, शोति । १६ स लक्ष्मीन्विता, लक्ष्म्यान्विताः । १७ स on. इति । १८ स मृत्युनिरूपणम् ।
SR No.090478
Book TitleSubhashit Ratna Sandoha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages267
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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