SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 162
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १४८ सुभाषितसंबोहः 519) कलहमातपुते मविरावशस्तमिह येन निरस्यति जीवितम्' । वृषभपास्यति संचित मलं धनमपैति जनैः परिभूयते ॥ २२ ॥ 520) स्वजनमन्यजनीयति मूढधीः परजनं स्वजनोमति मद्यपः । किमथवा बहुना कथितेन भी द्वितयको कविनाशकरी सुरा ॥ २३ ॥ 52.) भवति मद्यवशेन मनोभवः * “सकळवोक्करो उत्र शरीरिणः । भजति तेन विकारमनेकधा गुणयुतेन' सुरा परिवज्यंते ॥ २४ ॥ 522) प्रचुबोकरी* मविशमिति द्वितयसम्मविवापविचक्षणाम् । मिथितत्त्वविवेचक' मानसाः परिहरन्ति सदा मुनिनो जनाः ।। २५ ।। इति मद्यनिषेधविशतिः ॥ २० ॥ [519 २०-२२ जनैः परिभूयते ॥ २२ ॥ मद्यनः मूढधीः स्वजनम् अम्यजनीयति, परजनं स्वजनीयति । अथवा बहुना कथितेन किम् । भोः, सुरा तिलोकविनाशकरी ।। २३ ।। अत्र मधवशेन शरीरिणः सकलदोषकरः मनोभवः भवति । तेन शरीरी अनेकषा विकारं भवति । [ : ] गुणयुतेन सुरा परिवते ।। २४ ।। निखिलस्यविवेचकमानसाः गुणिनः जनाः इति प्रचुरदोषकरीं द्वितयजम्भविवाषविचक्षणां मदिरां सदा परिहरन्ति ।। २५ ।। इति मन्त्रभिषेषपाविशतः ॥ २० ॥ साथ ऐसा लड़ाई-झगड़ा करता है जिससे कि वह अपने जीवनको नष्ट कर बैठता है। वह धर्मको नष्ट करके पापमलका संचय करता है, धनका नाश करता है, तथा दूसरे लोगों के द्वारा तिरस्कृत होता है ॥ २२ ॥ मद्यको पीनेवाला मूर्ख मनुष्य अपने कुटुम्बी जनको अन्य समझने लगता है और अन्य जनको कुटुम्बी समझने लगता है। अधिक कहनेसे क्या काम है ? हे मध्य जन । वह मदिरा इस लोक और परलोक दोनोंको ही नष्ट करनेवाली है ॥ २३ ॥ मद्य प्रभावसे प्राचीके यहाँ समस्त दोषोंको उत्पन्न करने वाला काम उद्दीप्त होता है और उससे वह अनेक प्रकारसे विकारको भजता है-स्वस्त्री और परस्त्री आदिका विवेक न रखकर जिस किसी भी स्त्रीके साथ रमण करता है तथा अन्यान्य व्यसनोंमें भी आसक्त होता है। इसीलिये गुणवान् मनुष्य उस मद्यका परित्याग करता है ॥ २४ ॥ अपने मनको समस्त सत्वोंके विचार में लगानेवाले गुणवान् मनुष्य अनेक दोषोंको उत्पन्न करके दोनों ही लोकोंमें दुख देनेवाली उस मदिराका निरम्सर त्याग करते हैं ॥ २५ ॥ इस प्रकार पच्चीस श्लोकोंमें मद्यका निषेध किया ॥ २० ॥ १ स जीवितां । २ सवैति । ३ स सुधा ४ स मनोमक। ५ स म्रफल ं । ६ स गुणवतेन । ७ स करीं । ८ स विचक्षणम्। ९ स विवेकक । १० स निषेध निरूपणम् ।
SR No.090478
Book TitleSubhashit Ratna Sandoha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages267
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy