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________________ 867 : ३१-१०६] ३१. श्रावकधर्मकथनसप्तवंशोत्तरं शतम् ___162) शङ्काकाक्षाचिकित्सान्य'प्रशंसासंस्तवा मलाः । पञ्चेमे दर्शनस्योक्ता जिनेन्नेषुत कल्मषैः ॥ १०१॥ 863) इत्येवं सप्ततिः प्रोक्ता मलानाममलाशयैः । सस्या धुवासतो षायें भावकैवतमुत्तमम् ॥ १०२॥ 864) यो वषाति नरः पूतं श्रावकव्रतचितम् । मामरश्रियं प्राप्य यात्यसो मोसमक्षयम् ॥ १०३॥ 865) भ्रनेत्रा गुशिहुंकारशिरःसंशाधिपातम् । कुर्भोिजनं कार्य भावकमौनमुत्तमम् ॥ १४ ॥ 866) शरच्चन्द्रसमा कोति मैत्री सर्वजनानुगाम् । कन्दर्पसमरूपत्वं ओरत्वं दुषपूज्यताम् ॥ १०५॥" 867) आदेयत्वमरोगित्वं सर्वसस्वानुकम्पिताम्"। धनं धान्य घरों धाम सौख्यं सर्वजनाधिकम् ॥ १०६ ॥ निदानम् इति मलपञ्चक निर्दिष्टम् ।। १०० ॥ धूतकल्मषैः शाकाङ्क्षाचिकित्सान्यप्रशंसासंस्तवाः इमें दर्शनस्य पञ्च मला. उक्ताः ॥ १०१॥ अमलाशयः इति एवं मलानां सप्ततिः प्रोक्ता । तस्याः व्युदासतः श्रावकै उत्तम व्रत मार्यम् ।। १५२ ॥ यः नरः पूतम् अचितं श्रावकवतं दधाति, असी मामरश्रियं प्राप्य अक्षयं मोक्षं याति ॥ १०३ ॥ भ्रनेत्राङ्गलि कारशिरःसंज्ञायपाकृतं भोजनं कुर्वद्भिः श्रावकः उत्तम मौनं कार्यम् ॥ १०॥ [मौनेन बन: ] शरच्चन्द्रसमा कीति, सर्वजनानुगां मैत्री, कम्दपसमरूपरवं, पीरत्वं, बुधपूज्यतां, आदेयत्वम्, अरोगित्वम्, सर्वसस्वानुकम्पिता, धनं, धान्यं, धरा, घाम, सर्व इच्छा करना, जीनेकी इच्छा करना, मित्रोंसे अनुराग रखना, अनुभूत सुखका स्मरण करना और निदान अर्थात् आगामी भवमें भोगोंकी इच्छा करना; ये पांच संन्यास-सल्लेखनाके अतिचार कहे गये हैं।। १०० ॥ जिनवचन. में सन्देह रखना, सुखको स्थिर मानकर उसकी इच्छा करना, साधुके मलिन शरीरको देखकर घृणा करना, मिथ्यादृष्टिके गुणोंकी मनसे सराहना करना और मिथ्याष्टिके गुणोंकी वचनों द्वारा प्रशंसा करना; ये पांच वीतराग जिनेन्द्रके द्वारा सम्यग्दर्शनके अतिचार कहे गये हैं ॥१०१॥ इस प्रकारसे निर्मल अभिप्राय रखनेवाले जिनेन्द्र देवने सत्तर अतिचार ( बारह व्रत, सल्लेखना और सम्यग्दर्शन इनमेंसे प्रत्येकके पांच पांच ) कहे हैं। उन सबका निराकरण करके श्रावकोंको निर्मल प्रतका परिपालन करना चाहिये ॥ १०२।। जो मनुष्य पवित्र एवं पूजित इस श्रावकवतको धारण करता है वह मनुष्य एवं देवोंको लक्ष्मीको प्राप्त करके अविनश्वर मोक्षको प्राप्त होता है ॥ १०३ ॥ श्रावकोंको भृकुटि, नेत्र, अंगुलि, हुंकार (हूं हूं शब्द ) और शिरके संकेत आदिको छोड़कर भोजन करते हुए उत्तम मौनको धारण करना चाहिये ॥ १०४ ॥ मौनको धारण करनेवाले मनुष्यको शरत्कालीन चन्द्रमाके समान धवल कौति फैलती है, उसको समस्त जनसे मित्रता होती है-उससे कोई भी द्वेष नहीं करता है, वह कामदेवके समान सुन्दर होता है, धीर होता है, विद्वानोंसे पूजा जाता है, कान्तिमान होता है, नोरोग होता है, समस्त प्राणियोंके ऊपर दयालु होता है; धन, धान्य, पृथिवी और गृहसे संयुक्त होता है, समस्त जनोंसे अधिक सुखी होता है, उसकी वाणी १स चिकित्सादि। २ स पञ्चमे । ३ स दुत', 'धूत, 'दुत । ४ स तस्य । ५ स मुत्तमं । ६ स नरो । ७ स "मव्ययम् । ८ स शिर संख्या । १ स शम° । १० स पूजतां । ११ स om. !051 १२ स पिता, कपितं । १३ सपरा । सु. सं. २९
SR No.090478
Book TitleSubhashit Ratna Sandoha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages267
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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