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________________ सुभाषितसंदोह 913) यत्र प्रालेय राशिमन लिनवनोन्मूलनोद्यत्प्रमाणः सीत्कारी बन्तवीणादधि' कृतिचतुरः प्राणिनां वाति वातः । विस्तार्याङ्ग समग्रं प्रगतभूति 'चतुवंस्मंगा योगिवर्यास्ते ध्यानासक्तचित्ताः पुरुशिशिरनिशाः शीतलाः प्रेरयन्ति ॥ ३५ ॥ २३६ 914) चञ्चच्चारित्रयक प्रवित्रिति 'चतुराः प्रोच्चचर्चाप्रचर्या: " पञ्चाचार प्रचार" प्रचर रुचिचयाश्चारुचित्रत्रियोगाः । वाचामुच्चैः प्रपञ्चं रुचिरविरचने रथंनीयैरवख्यंमित्ययं २ प्राचिता नः पवमचलमनूचानकाश्चापयन्तु ॥ ३६ ॥ इति द्वादशविधतपश्चरणनिरूपणम् ॥ ३२ ॥ [ 913 : ३२-३५ यत्र मनलिनवनोन्मूलनोद्यत्प्रमाणः सततग्रतिकृतारावभीमासु क्षपासु अभीताः अतला असंगाः तत्तलं संश्रयन्ते ॥ ३४ ॥ प्रालेयराशिः, ( यत्र ) प्राणिनां सरकारी दन्तवीणारुचिकृतिचतुरः वाढः वाति [ पत्र ] समस्तम् अङ्गं विस्ता प्रगतधृतिचतुर्वगाः ध्यानासक्तचित्ताः ते योगिवर्याः शीतलाः पुरुशिशिरनिशाः प्रेरयन्ति ॥ ३५ ॥ चञ्चच्चारित्रचक्रप्रविचिति चतुराः प्रोन्चचर्चाप्रचर्याः पञ्चाचारप्रचारप्रचुररुचित्रयाः चारचित्रत्रियोगाः रुचिरविरचनैः अर्चनीयः वाचाम् उच्चैः प्रपञ्चः प्राचिताः अनूचानकाः इति अवयम् अर्घ्यम् अषलं पदं नः अर्पयन्तु ।। ३६ ।। इति द्वादशविधतपश्चरणनिरूपणम् ॥ ३२ ॥ किये गये शब्दोंसे भयको उत्पन्न करनेवाली रात्रियोंमें निर्भय होकर स्थिरतापूर्वक वृक्षतलका आश्रय लेते हैं || २४ || जिस शीतकाल में वृक्षों एवं कमलोंके बनको नष्ट करनेवाली प्रचुर बर्फ गिरती है और जिसमें सीसी शब्दको करानेवाली तथा प्राणियोंके दाँतोंरूप वीणा के शब्दके करनेमें चतुर वायु बहती है अर्थात् जिस शीतकालमें अति शीतल वायुसे प्राणियोंके दाँत किटकिटाने लगते हैं तथा वे सी-सी करने लगते हैं; उस शीतकालमें अतिशय धैर्यको धारण करके चतुष्पथ ( चौरास्ते) में स्थित वे श्रेष्ठ साधु अपने समस्त शरीरको विस्तृत करके ध्यान में मनको लगाते हुए अतिशय शीतल रात्रियोंको बिताते हैं || ३५ ॥ जो साधु निर्मल चारित्ररूप चक्रके संचयमें चतुर हैं, उत्कृष्ट तत्त्वचर्चा के कारण विशेष पूज्य हैं, सम्यग्दर्शनादिरूप पंचाचार के प्रचार में अनुराग रखते हैं, अनेक प्रकारके सुन्दर कार्यों में तीनों योगोंको प्रवृत्त करते हैं, देवादिकोंके द्वारा सुन्दर रचनावाले पूज्य वचनोंके विस्तारसे पूजित है, तथा सिद्धान्त के पारंगत है, वे हमें लोकपूज्य स्थिर पद (मोक्ष) को प्रदान करें ॥ ३६ ॥ इसप्रकार बारह प्रकारके तपश्चरणका निरूपण हुआ ! १स राशि २ सात्का", सात्कारं । ३ स इति । ४ स प्रा° प्राणि वातः । ५ स विस्तीर्याङ्गं विस्तार्यङ्गं । ६ स "वृत्त" । ७ स चक्रे । ८ स चित° । ९ स प्राच प्रचय, प्रोचदो (?) वीं, प्रोवचार्चीप्रवर्ध्यात्, प्रभ्ववाली, प्रोच्चचादी प्रचय। १० स चारे प्रचारः प्रचर । ११ स . प्रचुर । "य", "त्यव्यं, "वयं नित्यच्यं प्रातानः, प्राच्यंतानः प्राच्यंता, प्रांचिता । १३ स १२ स कार्म्य तु वर्ज्य नित्य, "बच्चे", दचार्जयंतु, रवर्जयंतु ।
SR No.090478
Book TitleSubhashit Ratna Sandoha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages267
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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