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________________ 915) 'आसीद्विध्यस्तकन्तोविपुलशमभूतः श्रीमतः कान्तिकः सुरेर्यातस्य पारं श्रुतसलिलनिषेवैवसेनस्य शिष्यः । विज्ञाता शेषशास्त्री व्रतसमिति भूतामप्रणीर स्कोपः श्रीमान्मान्यो मुनीनाममितगतियति स्वयंक्तनिःशेषसंग ॥ १ ॥ 916) अलङ्घ्य महिमालयो विपुलस स्ववान् रत्नषिवरस्थिरगभीरतो गुणमणिस्तपो वारिधिः । समस्तजनतामतां' श्रियमनवरों देहिनां "सदा मलजलच्युतो विबुधसेवितो बत्तवान् ॥ २ ॥ 917) तस्य ज्ञात समस्तशास्त्रसमयः शिष्यः सतामप्रणोः श्रीमन्मायुरसंघसाधु तिलकः श्रीनेमिषेणो ऽभवत् । शिष्यस्तस्य महात्मनः शमयुतो निघू तमोहद्विषः श्रीमान्माषवसेनसूरिरभवत् क्षोणीतले पूजितः ॥ ३॥ 918) कोपारातिविघातको ऽपि सक्नुपः सोमो ऽप्यदोषाकरो जैनो ऽभ्युप्रतपोरतो" गतभयो भीतो ऽपि संसारतः | निष्कामो ऽपि समिष्टमुक्तिवनितायुक्तो ऽपि यः संयतः सत्यारोपितमानसो भूतविधो ऽप्ययं प्रियो ज्यप्रियः ॥ ४ ॥ 13 कामवासना से रहित, अतिशय शान्तिके धारक, लक्ष्मीसे सम्पन्न, निर्मल कीर्ति से सहित तथा श्रुतरूप समुद्रके पार पहुँचे हुए श्री देवसेन सूरि हुए। उनके शिष्य अमितगति यति हुए। ये अमितगति यति समस्त शास्त्रोंके ज्ञाता, व्रत व समितियोंके धारक साधुओं में श्रेष्ठ, क्रोधसे रहित, लक्ष्मीसे संयुक्त, मुनियोंके मान्य और समस्त परिग्रहसे सहित थे ॥ १ ॥ अलंघ्य महिमाके स्थानभूत, अतिशय सत्त्वशाली, उत्तम स्थिरता एवं गम्भीरतामें समुद्रके समान, गुणों में श्रेष्ठ, तपके समुद्र, निरन्तर मलरूप जलसे रहित और विद्वानोंसे पूजित वे अमितगति यति प्राणियोंके लिये समस्त जनताको अभीष्ट ऐसी अविनश्वर लक्ष्मीके देनेवाले ये ॥ २ ॥ उनके शिष्य समस्त शास्त्रोंके रहस्य के जानकार, सत्पुरुषोंमें श्रेष्ठ मोर श्रीसम्पन्न माथुर संघके साधुओं में अग्रगण्य श्रीनेमिषेण हुए। मोहरूप शत्रुको नष्ट कर देनेवाले उस ( नेमिषेण ) महात्मा के शमयुक्त व पृथिवीतलमें पूजित माधवसेन सुरि हुए ॥ ३ ॥ वे क्रोधरूप शत्रुके घातक हो करके भी दयालु थे, सोम (चन्द्र) अर्थात् आह्लाद जनक होते हुए भी दोषाकर ( चन्द्र ) अर्थात् दोषोंकी खान नहीं थे, जैन हो करके भी तीक्ष्ण तपमें आसक्त थे, निर्भय हो करके भी संसार से भयभीत थे, कामसे रहित हो करके भो अभीष्ट मुक्तिरूप स्त्रीसे सहित थेमोक्ष प्राप्तिको इच्छा रखते थे, संयत हो करके भी सत्यमें मन लगाते थे, वृष । बेल व धर्म ) के धारक हो करके भी पूज्य थे, तथा लोकप्रिय हो करके भी प्रेमसे रहित थे ॥ ४ ॥ कामरूप शत्रुको नष्ट करनेवाले, भव्य - 1 १ स आशीविष्वस्त । २ स कांत, कान्तकीर्तिः । ३ स समितिमिताभ ४ सom यति । ५ स After this uerse इति द्वादश ctc. ६ स आलिय । ७ स पपो, पयो । ८ स जनता सतां । ९ स सदा मत । १० स श्रीमान्मा । ११ सयुग्रतरस्तपो म्युग्रतरस्तपोगतभयो । १२ सom. ऽपि to यः । १३ स श्ययंत्रियो ।
SR No.090478
Book TitleSubhashit Ratna Sandoha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages267
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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