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सुभाषितसंवोहः
[ 537:२१-१ 537) आहारवर्ग' सुलभ विचित्रे विमुक्तपापे भुवि विद्यमाने।
प्रारम्भवुःख विविधं प्रपोष्य वस्ति गुदिनं किमति मांसम् ॥ १५ ॥ 538) यरं विषं भक्षितमुग्रवोर्ष ययेकवारं कुरुते ऽसुनाशम् ।
मांसं महादुःखमनेकवारं वदाति जन्ध मनसामि पुंसाम् ॥ १६॥ 539) अश्नाति यः संस्कुस्ते निहन्ति ववाति गल्लात्पनुमन्यसे च ।
एते षडप्यत्र विनिन्दनीया भ्रमन्ति संसारवने निरन्तम् ॥ १७ ॥ 540) चिरायुरारोग्यसुरू एकान्तिप्रोतिप्रतापप्रियंपावितायाः।
गुणा विनिन्यस्य सता नरस्य मासाशिनः सन्ति परत्र नेमे ॥१८॥ इह लोके तत् अपि युक्त्या विरुवम् ॥ १४ ॥ गतिः न अस्ति बस मुवि विमुक्तपापे विचित्र सुलभे आहारवर्ग विद्यन्यो । विविष प्रारम्भदुःसं प्रपोष्य मांस किम् अत्ति ।। १५ ।। ननदोषं विषं मक्षितं वरम् । यत् एकवारम् असुनाशं कुरुते । मनसा | अपि जाधं मांसं पुंसाम् अनेकबारं महादुःखं ददाति ॥ १६॥ मत्र यः [मांसम् ] अश्नाति, संस्कुरुते, निहन्ति, ददाति गृह्मति, अनुमन्यते च । एते षट् अपि विनिन्दनीयाः संसारवने निरन्तरं श्रमन्ति ।। १७ ।। सतां विनिन्यस्य मांसाविर. नरस्य परत्र चिरायुरारोग्यसुरूपकान्तिप्रीतिप्रतापप्रियवादितावाः इमे गुणाः न सन्ति । १८ ।। विद्यावयासंयमसत्यशौचष्यामांसको यदि मनुष्य लोलुपतासे रहित होकर खाता है तो उसके कोई दोष उत्पन्न नहीं होसा, ऐसा कितने हो । जन कहते हैं । उनका यह कथन भी युक्सिके विरुव है। कारण यह कि यदि मांसके खाने में लोलुपता न होती तो फिर पृथ्वीपर विद्यमान अनेक प्रकारके निर्दोष आहारसमूह ( गेहूं, चावल आदि धान्य )के सुलभ होनेपर भी प्रारम्भमें बहुत प्रकारके दुःखको पुष्ट करके मनुष्य उस मांसको क्यों खाता है ।। १४-१५ ॥ विशेषार्थऊपर कहा गया है कि मांस चुकि गृद्धिको उत्पन्न करके इन्द्रियोंको उद्धत करता है जिससे कि मनुष्य काम अधीन होकर असदाचरण करने लगता है, अतएव वह मांस हेय है। इसके ऊपर यह शंका हो सकती थी कि मनुष्य यदि लोलुपतासे रहित होकर उसे खाता है तो उसमें अन्नाहारके समान कोई दोष नहीं होना चाहिये। इस शंकाके उत्तरस्वरूप यहाँ यह बतलाया है कि मांसके खानेमें जब लोलुपता होती है तब ही मनुष्य कष्टपूर्वक उसे प्राप्त करके खाता है। यदि उसे उसके खानेमें अतिशय अनुराग न होता तो फिर जब अनेक प्रकारका निर्दोष अन्नाहार यहाँ विद्यमान है और वह सुलम भी है तब मनुष्य हिंसाजनक उस दुर्लभ मासके खानेमें क्यों उद्यत होता है ? इससे उसकी सविषयक लोलुपता ही सिद्ध है। तोव दोषको उत्पन्न करनेवाले विषका भक्षण करना अच्छा है, क्योंकि वह केवल एक बार ही प्राणोंको नष्ट करता है। परन्तु मांसका मनसे भी भक्षण करना-उसके खानेका विचार मात्र करना अच्छा नहीं है, क्योंकि वह अनेक बार प्राणोंका घात
आदि करके मनुष्योंको महान् दुःख देता है ।। १६ ॥ जो मनुष्य यहाँ मांसको खाता है, उसे पकाता है, उसके | लिए जीवघात करता है, उसे दूसरेको देता है, स्वयं ग्रहण करता है, और उसका अनुमोदन करता है, ये छहों प्रकारके मनुष्य निन्दाके पात्र होकर अनन्त संसारमें परिभ्रमण करते हैं ।। १७ ।। जो मनुष्य मांसको खाता है उसको इस लोकमें तो सत्पुरुष निन्दा किया करते हैं तथा परलोकमें उन्हें दीर्घ आयु, नीरोगता, सुन्दर रूप, कान्ति, प्रीति, प्रताप और प्रियवादित्व आदि गुण नहीं प्राप्त होते हैं ।। १८॥ जो मनुष्य मांसका भक्षण
१स वर्ग । २ स प्रपोभ्यं । ३ स प्रपो [ ज्य मरनतः ] चेदस्त । ४ स किमत्त, किमस्ति । ५ स ददास्य । ६ स निरः | न्तरम् निरन्तरे । ७ स स्वरूप । ८ स प्रेयं°। ९स सत्ता, सतानुख्या ।