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________________ 336 : २१-१४] २१. मांसनिरूपणषड्विंशतिः 533) मांसं शरीरं भवतोह जन्तोर्जन्तोः शरीरं न तु मांसमेव । यथा तमालो नियमेन वृक्षो वृक्षात्समालो' न तु सर्वथापि ॥ ११ ॥ 534) रसोत्कटरवेन करोति गदि मांसं यथान तथात्र जातु । जास्वेति मांसं परिषज्यं साषराहारमश्नातु विशोध्य पूतम् ॥ १२ ॥ 535) करोति मांसं बलमिन्द्रियाणां ततोऽभिवृद्धि मवनस्य तस्मात् । करोत्ययुक्ति प्रविचिन्त्य बुष्या' स्यन्ति मासं त्रिविषेन सन्तः ॥ १३ ॥ 536) गृद्धि विना भक्षयतो न दोषो मांस नरस्यान्नमस्तकोषम् । एवं वचः केचितुवाहरन्ति युक्त्या विसं तापोह लोके ॥१४॥ संतः तयोः दोषगुणो समानौ । अत्र एताचः युक्तिविमुक्तम् ।। १० । इह मांसं जन्तोः शरीरं भवति । सु जन्तोः शरीरं मांसम् एव न । यथा तमाल: नियमेन वृक्षः । तु वृक्षः सर्वथा अपि समाल: न ।। ११ ॥ यया रसोत्कटत्त्वेन मांसं गाँव करोति, तथा अत्र अन्नं जातु न । इति ज्ञात्वा मांसं परिवर्त्य साधुः विषोभ्य पूतम् आहारम् मश्नातु ॥ १२ ॥ मांसम् इन्द्रियाणां बलं करोति । ततः मदनस्य अभिवृद्धि (करोति)। तस्मात् अयुक्ति करोति । इति बुध्या प्रविचिन्त्य सम्तः विविधेन मांसं त्यजन्ति ॥ १३ ॥ अन्नवत् अस्तदोषं मांसं गृढि विना भक्षयतः नरस्य न दोषः, एवं वचः केचित् उदाहरन्ति आशंका की जाती है वह युक्तिसे रहित है ॥ १० ॥ उक्त शंकाके उत्तर में कहते हैं कि यहां मांस प्राणीका शरीर है, परन्तु प्राणीका शरीर मांस ही नहीं है। जैसे-तमाल नियमसे वृक्ष ही होता है, किन्तु वृक्षा सर्वथा समाल ही नहीं होता है ॥ ११ ॥ विशेषायं-ऊपर श्लोक १०में यह शंका की गयी थी कि जिस प्रकार मांस मृग आदि प्राणियोंका शरीर है उसी प्रकार अन्न भी तो वनस्पति कायिक प्राणियोंका शरीर है फिर क्या कारण है जो अन्नके भोजनमें तो परमाणुके बराबर ही पाप हो और मांसके खाने में मेरुके बराबर महान् पाप हो वह दोनोंके खानेमें समान ही होना चाहिये, न कि होनाधिक । इस आशंकाके उत्तरमें यह बतलाया है कि मांस प्राणीका शरीर अवश्य है, परन्तु सब ही प्राणियों का शरीर मांस नहीं होता है। उन दोनोंमें समाल और वृक्षके समान व्याप्य-व्यापकभाव है--जिस प्रकार जो तमाल होगा यह वृक्ष अवश्य होगा, किन्तु जो वृक्ष होगा वह तमाल ही नहीं होगा, वह तमाल भी हो सकता है और नीम आदि अन्य भी हो सकता है। उसी प्रकार जो मांस होगा, वह प्राणीका शरीर अवश्य होगा किन्तु जो प्राणीका शरीर होगा वह मांस हो नहीं होगा- वह कदाचित् मांस भी हो सकता है और कदाचित् गेहूँ व चावल आदि रूप अन्य भी हो सकता है। इसीलिये मांसमें जिस प्रकार अन्य त्रस जीवोंकी उत्पत्ति होती देखी जाती है उस प्रकार गेहूं आदिमें वह निरन्तर नहीं देखी जाती है। अतएव मांसके खाने में जो महान् पाप होता है वह अन्नके खाने में समानरूपसे नहीं हो सकता है उसकी अपेक्षा अत्यल्प होता है। अतएव बुद्धिमान् मनुष्यों को निरन्तर मांसका परित्याग करके अन्नका ही भोजन करना चाहिये ॥११॥ जिस प्रकार यहाँ स्वादिष्ट रसको अधिकत्तासे मांस लोलुपताको उत्पन्न करता है उस प्रकार अन्न कभी नहीं उत्पन्न करता, ऐसा जान करके सज्जन मनुष्य के लिए मांसका परित्याग करके संशोधन पूर्वक पवित्र आहारको खाना चाहिये ।। १२ ।। मांस इन्द्रियोंके बलको करता है--उन्हें बल प्रदान करता है, इससे . कामकी वृद्धि होती है, और उससे फिर प्राणी अयोग्य आचरणको कला है, इस प्रकार बुद्धिसे विचार करके सज्जन मनुष्य उस मांस का मन, वचन और कायसे परित्याग करते हैं ।। १३ । अन्नके समान निदोष १ स वृक्षस्तनुमालो न । २ स om, न, यथान्नेन न । ३ स संशोध्य । ४ स सर्व lor बुध्या।
SR No.090478
Book TitleSubhashit Ratna Sandoha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages267
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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