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सुभाषितसंबोहः
[527 : २१-५ 527) षट्कोटिशुद्धं पलमश्नतो नो दोषो ऽस्ति ये नष्टधियो वदन्ति।
नराविमांसं प्रतिषिसमेतैः कि कि न वोढास्ति विशुद्धिरत्र ॥ ५ ॥ 528) बझ्नाति यो मांसमसौ विषसे वभानुमोवं त्रसदेहभाजाम् ।
गृहाति रेपोसि' ततस्तपस्वी तेम्मो दुरन्तं भवमेति जन्तुः ॥ ६ ॥ 529) आहारभोजी कुरुते नुमो नरो वये स्थावरजङ्गमानाम् ।।
तस्यापि तस्मादबुरितानुषङ्गमित्याह यस्तं प्रति बाम' किंचित ॥७॥ 530) ये ऽग्नाशिनः स्थावरजन्तुपातामांसाशिनो प्रसजोवघातात् ।
गोवस्तयोः स्थास्परमाणुमेबार्यवान्तरं बुद्धिमतेति वेयम् ॥८॥ 581) बन्लाशने स्यात्परमाणुमात्रः प्रवाश्यते शोषमितुं तपोभिः ।
मांसाशने पर्वतराजमानो नो भापते शोषयितुं महत्वा ॥९॥ 532) मांसं यथा देहमृतः शरीरं सवालमणि शरीरतात:।
ततस्तयोदोषगुणो समानावेताको युक्ति विमुक्तमत्र ॥१०॥ एत: नराविमसि कि प्रतिषितम् । बत्र कोडा विशुद्धिः न अस्ति किम् ।। ५ ।। यः मांसम् अनाति बसो बसदेहभाजाम् बधानुमोदं विधसे । ततः रेपांसि गृहाति । तेभ्यः तपस्वी बन्तुः दुरतं भवम् एति ।।६॥ माहारभोजो नरः स्थावरजन्ममाजांबरे अनुमोद कुइते । तस्मात् तस्यापि दुरितानुषप्रं यः आह, तं प्रति किंचित् प्रतिवच्मि ॥७॥ ये अन्लाशिनः [ तेषां ] स्थावरजन्तुधातात, ये मांसामिन: [ Bषा ] सजीवातात् दोषः स्यात् । इति बुद्धिमता तयोः परमाणुमेोः पषा अन्तरं वेबम् ।। ८ ।। अन्नाशने परमाणुमात्र: [ दोषः ] स्यात् । [स: ] तपोभिः शोषयितुं प्रशक्यते । मांसाशने पर्वतराजमात्रः [सः ! महत्वात् शोधयितुं नो शक्यते ॥९॥ यथा मांसं देहभृत: शरीरं तथा बानम् अपि अङ्गिशरीरतात.। ऐसा जो दुर्बुद्धि मनुष्य कहते हैं वे मनुष्य आदिके मांसका निषेध क्यों करते हैं, क्या इसमें छह प्रकारकी ! विशुद्धि नहीं है ? अर्थात् यदि हिरण आदिके मांसमें छह प्रकारको विशुद्धि है तो फिर वह मनुष्यके मांसमें भी होनी चाहिये, अतएव उसके खानेमें भी फिर कोई दोष नहीं समझा जाना चाहिये ॥ ५॥ जो जीव मांसको खाता है वह उस जीवोंको हिंसाका अनुमोदन करता है-उसको प्रोत्साहन देता है। इससे वह बेचारा निन्दित पापोंको ग्रहण करता है जिससे कि दुविनाश संसारको प्राप्त होता है अनन्त संसार परिभ्रमणके दुःखको सहता है ॥ ६॥ अन्नका भोजन करनेवाला मनुष्य स्थावर प्राणियोंकी हिंसाका अनुमोदन करता है, अवएव उसके पापका प्रसंग प्राप्त होता है; ऐसी जो आशंका करता है उसके प्रति उसररूपमें कुछ कहता . है उसके लिए निम्न प्रकारसे उत्तर दिया जाता है ।। ७ ।। जो मनुष्य अन्नको खाते हैं उनके स्थावर जीवोंकी हिंसासे पाप होता है, किन्तु जो मांसको खाते हैं उनके प्रस जीवोंकी हिंसासे पाप होता है। इस प्रकारसे यपि पापके भागो वे दोनों ही प्राणी होते हैं, फिर भी बुद्धिमान मनुष्यको उनके पापमें परमाणु और मेह. पर्वतके समान अन्तर समझना चाहिये ।। ८ ।। अन्नके खाने में जो परमाणु प्रमाण स्वल्प पाप होता है उसको तपोंके द्वारा शुद्ध किया जा सकता है। परन्तु मांसके खाने में जो मेरुके समान भारी पाप होता है उसको अतिशय महान होनेसे शुद्ध नहीं किया जा सकता है ।।९॥ जिस प्रकार मांस प्राणीका शरीर है उसी प्रकार अन्न भी प्राणीका शरीर है। इसलिये उन दोनोंमें गुण और दोष समान है। इस प्रकारको जो यहाँ यह
१ स रेफांसि । २ स न मोवं । ३ स OL. स्थावर 0 येन्नाशिनः । ४ स वयि, प्रतिवच्मि । ५ स यो। ६ स यस्त्र, ये न सजीवघातान् । ७ स न । ८ स महत्वात् । र स प्या, प्यङ्गि श°। १० स तप्तः ।