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________________ 96: ५-१४] ५. इन्द्रियरागनिषेधविंशतिः 02) मयै हपीकविषया यदमी त्यजन्ति नाश्चर्यमेतदिह किंचिदनित्यतातः। एतत्तु चित्रमनिशं यदमीयु मूढो मुक्तोऽपि मुञ्चति मतिं न विवेकशून्यः ॥ १० ॥ 93) आदित्यचन्द्रहरिशंकरयासवाद्याः शक्ता न जेतुमतिदुःखकराणि यानि । तानीन्द्रियाणि बलवन्ति सुदुर्जयानि ये' निर्जयन्ति भुवने' यलिनस्त एके ॥ ११ ॥ 94) सौख्यं यत्र विजितेन्द्रियशत्रुदर्पः प्राप्नोति पापरहितं विगतान्तरायम्।। ___स्वस्थ तदात्मकमनात्मधियोविलभ्यं किं तहुरन्तविषयानलतप्तचिप्सः ॥ १२ ॥ 95) नानाविधव्यसनधूलिविभूतिवातं तत्त्वं विविक्तमवगम्य जिनेशिनोक्तम् । यः सेचते विषयसौख्यमसी विमुच्य हस्ते ऽमृतं पिबति रौद्रविषं निहीनः ॥ १३ ।। D6) वासत्यमेति वितनोति निहोर्मसेवां धर्म धुनोति विदधाति चिनिन्धकर्म । "रेपचिनोति कुरुते ऽतिविरूपवर्ष किं वा हपीकवशंतस्तनुते में मर्यः ॥ १४ ॥ समस्तजनतामहितः कुलीनः भवति ।। ९॥ यत् इह अनित्यतातः अमी हषीकविषया: मत्यं त्यजन्ति एतत् किंचित् आश्चर्य न । तु यत् मुक्तो ऽपि अमीषु मूढः विवेकशून्म: अनिशं मति न मुञ्चति एतत् चिवम् (अस्ति) ।। १० ।। आदित्पचन्द्रहरिशकरवासवाद्या; अतिदुःखकराणि यानि जेतुं न शक्ताः तानि सुदुर्जयानि बलवन्ति इन्द्रियाणि ये निर्जयन्ति भुवने ते एके पलिनः ॥११॥ अन्न विजितेन्द्रिमशत्रपः यत् पापरहितं विमतान्तरायं स्वस्थं तदात्मकं सौख्यं प्राप्नोति दुरन्तविषयानसतप्तचित्तः अनात्मधियाविलम्यं तत् प्राप्नोति किम् ।। १२॥ जिनेशिना उक्तं नानाविधव्यसनधूलिविभूतिवात विविक्तं तस्वम् अवगम्य य: विषमसौख्यं सेवते असौ निहीनः हस्ते (स्थितं) अमृतं विमुच्य रौद्रविष पिबति ॥ १३॥ मत्यः षीका है तभी तक वह वस्तुस्वरूपका जानकार, दोषोंसे रहित, स्वाभिमानी, उत्तम गुणोंसे संयुक्त, आदरणीय, वक्ता, पराक्रमी, समस्त जनसमूहसे पूजित और कुलीन रहता है। [ अभिप्राय यह कि मनुष्यके इन्द्रियविषयोंमें आसक्त होनेसे उसके उपर्युक्त सब ही गुण नष्ट हो जाते हैं ] ॥९॥ यहाँ यदि ये इन्द्रियविषय मनुष्यको छोड़ देते हैं तो यह कुछ भी आर्यकी बात नहीं है, क्यों कि वे अनित्य है- विनश्वर ही हैं। परन्तु आश्चर्य तो इसमें है कि उक्त इन्द्रियविषयोंके द्वारा छोडा गया भी यह मनुष्य अविवेकतासे इनमें मोहको प्राप्त होकर दिनरात उनकी ओरसे अपनी बुद्धिको नहीं हटाता है~ सर्वदा उन्हें. भोगनेकी ही अभिलाषा रखता है।॥ १०॥ जिन दुखदायक इन्द्रियोंको जीतनेके लिये सूर्य, चन्द्र, विष्णु, महादेव और इन्द्र आदि समर्थ नहीं हुए हैं उन अतिशय दुर्जय बलवान् इन्द्रियोंको जो इस संसारमें जीतते हैं वे अद्वितीय बलवान् हैं- उनके समान पराक्रमी दूसरा कोई भी नहीं है ॥ ११ ॥ जिसने इन्द्रियरूप शत्रुओंके अभिमानको चूर्ण कर दिया है वह यहां आधारहित जिस निर्दोष आत्मिक सुखको प्राप्त करता है वह क्या कभी उस मनुष्यको प्राप्त हो सकता है जो शरीरादि बाह्य वस्तुओंको अपना समझता है तथा जिसका मन दुखदायक विषयरूप अग्निसे सदा सन्तप्त रहता है ! अर्थात् वह निर्बाध सुख विषयी प्राणीको कभी नहीं प्राप्त हो सकता है ॥ १२ ॥ जिन भगवानके द्वारा उपदिष्ट जो निर्देोष वस्तुस्वरूप अनेक प्रकारके व्यसनरूप लिके वैभवको नष्ट कर देनेके लिये बायुके समान है उसको जान करके भी जो जीव विषयसुखका सेवन करता है वह मूर्ख हाथमें स्थित अमृतको छोडकर भयानक विषको पीता है । विशेषार्थ- अभिप्राय यह है कि जिसने जिनागमके अभ्याससे यह भले प्रकार जान लिया है कि। ये इन्द्रियविषय प्राणीको अनेक जन्मों में कष्ट देनेवाले हैं तथा इनका परित्याग उसे निराकुल सुखको उत्पन्न करनेवाला है, फिर भी यदि वह उन्हीं विषोंके सेवनकी अभिलाषा करता है तो उसे उस मूर्खके समान ही समझना चाहिये जो कि प्राप्त हुए अमृतको छोडकर प्राणघातक विषके पीनेमें प्रवृत्त होता है ॥ १३ ॥ विषयी मनुष्य दासका काम करता है, नीव जनकी सेवा करता है, धर्मको नष्ट करता है, नीच कार्यको १ स केशवायाः। २ स जे। ३ स भवने। ४ स एव । ५ स 'धिया लि । ६ विहीन । स धुनाति । दस रेफ, रेफ' । ९ स बसत । १० स स मर्त्यः ।
SR No.090478
Book TitleSubhashit Ratna Sandoha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages267
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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