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________________ [ ८. ज्ञाननिरूपणात्रिंशत् ] 180 ) अनेकपर्यायगुणैरुपेतं विलोक्यते येन समस्ततत्यम् । तदिन्द्रियानिन्द्रियमेदमिनं ज्ञानं जिनेन्द्रैर्गदितं हिताय ॥ १ ॥ 181) रत्नत्रयीं रक्षति येनै जीवो विरज्यते ऽत्यन्तशरीरसौष्यात् । रुद्धि पापं कुरुते विशुद्धिं ज्ञानं तदिष्टं सकलार्थविद्भिः ॥ २ ॥ 182) को धुनीते विदधाति शान्ति तनोति मैत्री विहिनस्ति मोहम् । पुनाति चित्तं मदनं लुनीते येनेह बोधं समुशन्ति सन्तः ॥ ३ ॥ 183) ज्ञानेन बोधं कुरुते परेषां कीर्तिस्तान्द्र मरीचिगौरी | ततो ऽनुरागः सकले ऽपि लोके ततः फलं तस्य मनोनुकूलम् ॥ ४ ॥ 184) शानादितं वेत्ति ततः प्रवृत्ती रक्षत्रये संचितकर्ममोक्षः । ततस्ततः सौख्यम्बाधर्मुस्तेनात्र यत्नं विदधाति दक्षः ॥ ५ ॥ ये अनेक पर्यायगुणैः उपेतं समस्ततत्त्वं विलोक्यते तत् इन्द्रियानिन्द्रियमेदमित्रं ज्ञानं जिनेन्द्रैः हिताय गदितम् ॥ १ ॥ येन जीवः रत्नत्रयीं रक्षति, अत्यन्तशरीरसौख्यात् विरज्यते पापं रुणद्धि, विशुद्धि कुरुते तत् ज्ञानं सकलार्थविद्भिः इष्टम् || २ || (भष्यः ) येन इह क्रोधं धुनीते, शान्ति विधाति, मंत्री तनोति, मोहं विहिनस्ति चित्तं पुनाति मदन लुनीते, सन्तः तं बोधम् उशन्ति ॥ ३ ॥ ( भव्यः ) ज्ञानेन परेषां बोर्ष कुरुते । ततः चन्द्रमरीचिगौरी कीर्तिः, ततः सकले अपि लोके अनुराग ततः तस्य मनोनुकूलं फलम् ॥ ४ ॥ दक्षः शानात् हितं वेति । ततः रत्नश्ये प्रवृत्तिः । ततः संचितकर्ममोकः । ततः अबाधम् उच्चैः सौख्यम् । तेन अत्र यत्नं विवधाति ॥ ५ ॥ अंज्ञजीवंः भवकोटिलक्षेरुः तपोभिः यत् कर्म विधुनोतिः जो अनेक गुणों और पर्यायोंसे संयुक्त समस्त तत्त्वको देखता जानता है वह ज्ञान कहा जाता है। वह इन्द्रिय और अनिन्द्रियके भेदसे दो प्रकारका अथवा छह प्रकारका है। जिनेन्द्र देवने उसे प्राणियोंका हित करनेवाला बतलाया है ॥ १ ॥ जीव जिस गुणके द्वारा शारीरिक सुखसे अतिशय विरक्त होकर रत्नत्रयकी रक्षा करता है तथा पापको रोककर आत्मविशुद्धिको करता है वह समस्त पदार्थों के जानकार सर्वदर्शियोंके लिये ज्ञान अभीष्ट है। विशेषार्थ - जब तक प्राणी के ज्ञान ( हिताहितविवेक ) नहीं होता है तब तक वह शारीरिक सुखको ही यथार्थ सुख समझकर उसकी पूर्ति के लिये निरन्तर प्रयत्नशील रहता है और पापका संचय करता है । परन्तु जब उसे वह सुबोध प्राप्त हो जाता है तब वह उस सुखको परिणाममें दुखकारक समझ करके उससे विरक्त हो जाता और यथार्थ सुखके कारणभूत रत्नत्रयमें अनुराग करने लगता है। इस प्रकारसे उत्तरोत्तर विशुद्धिको प्राप्त होता हुआ वह अन्तमें शाश्वतिक सुखको भी प्राप्त कर लेता है। यह सब माहात्म्य उस ज्ञानका ही है || २ || जिसके द्वारा प्राणी क्रोधको नष्ट करता है, शान्तिको उत्पन्न करता है, मित्रताको विस्तारता है, मोहका घात करता है, चित्तको पवित्र करता है, तथा कामको खण्डित करता है उसे साधुजन ज्ञान कहते हैं ॥ ३ ॥ ज्ञानी जीव ज्ञानके द्वारा दूसरों को प्रबुद्ध करता है। इससे उसकी समस्त लोकमें चन्द्रकिरणोंके समान are कीर्ति फैलती है। उससे समस्त लोक में अनुराग होता है अर्थात कीर्तिके फैलनेसे सब प्राणी उसके विषयमें अनुराग करने लगते हैं। और इससे उसे इच्छित फल प्राप्त होता है ॥ ४ ॥ प्राणी ज्ञानसे अपने हितको जानता है। उससे उसकी रत्नत्रयमें प्रवृत्ति होती है, उससे संचित कर्मका क्षय होता है, और उससे निर्बाध महान सुख प्राप्त होता है । इसीलिये चतुर पुरुष इस ज्ञानके विषय में प्रयत्न करता है ॥ ५ ॥ 1 १ये रयति । २ स जेन । ३ स विराज्यते । ४ सवद्भिः । ५ स बोधः ६ स मनो ऽनुकूलम् | ७ समु, मु, मुध्त्र ।
SR No.090478
Book TitleSubhashit Ratna Sandoha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages267
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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