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________________ 17980-५२] ७. मिथ्यात्वसम्यक्त्वनिरूपणद्वापञ्चाशत् 174) प्रमाणसिद्धाः कथिता जिनेशिना ग्ययोद्भवधौव्ययुताविमोहिना । समस्तभावा वितथा न वेति यः करोति शक्का स निहन्ति दर्शनम् ॥४॥ 175) सुरासुराणामथ चक्रधारिणां निरीक्ष्य लक्ष्मीममला मनोहराम् । अनेन शीलेन भवेन्ममेति यस्तनोति कारक्षा स धुनोति सदचिम् ॥४८॥ 176) मलेन दिग्धानवलोक्य संयताप्रपीढितान्या तपसा महीयसा। नरश्चिकित्सा विदधाति यः परा निहन्ति सम्यक्त्वमसावधेतनः ॥४९॥ 177) विलोक्य रौदॆवतिनो न्यालिङ्गिना प्रकुषतः कन्दफलाशमादिकम् । इमे ऽपि कर्मक्षयकारणवता विचिन्वतेर्सि' प्रतिहम्यते इधिः ।५॥ 178) कुदर्शनशानचरित्रचिजानिरस्ततस्वार्थरुचीनसंयतान् । निषेवमाणो मनसापि मानयो लुनाति सम्यक्त्वतई महाफलम् ॥ ५॥ I79) जिनेन्द्रचन्द्रामलभक्तिभाषिनी निरस्समिथ्यास्वमलेन वेहिना । प्रधार्यते येन विशुद्धदर्शममवाप्यते तेम विमुक्तिकामिनी ॥२॥ इति मिथ्यावसम्यक्रवनिरूपणापश्चाशत् ॥७॥ विमोहिना जिनेशिना कथिताः व्ययोद्भवप्रौव्ययुताः समस्तभावाः प्रमाणसिवाः। (ते) बितषा: न वा इति यः शर्श करोति स: दर्शनं निहन्ति ।। ४७ ॥ यः सुरासुराणाम् अथ पक्रधारिणाम् अमलां मनोहरां लक्ष्मी निरीक्ष्य अनेन शीलेन मम (सा) भवेत् इति कालांतनोति सः सनुचि धुनोति ।। ४८॥ यः नरः संयतान् मलेन दिग्धान् अबलोक्य वा महीयसा तपसा प्रपीडितान अवलोक्य परां चिकित्सा विदधाति असो अचेतनः सम्यक्त्वं निहन्ति ।। ४९॥ कन्दफलाशनादिकं प्रकवतः रौद्रवतिनः अन्यलिङ्गिनः विलोक्य इमे अपि कर्मक्षयकारणव्रताः इति विचिन्वता रुचिः प्रतिहल्यने ।। ५० ॥ कुदर्शमज्ञानचरित्रचित्तजान् निरस्वतत्वाधरुषीन् असंयतान् मनसा अपि निषेवमाण: मानवः महाफलं सम्यक्त्वतरूं। निरस्तमिथ्यात्वमलेन जिनेन्द्रचन्द्रामलभक्तिभाविना येन देहिना विशुद्धदर्शनं प्रधार्यते, तेन विमुक्तिकामिनी अवाप्यते ।।५२।। इति मिथ्यात्वसम्यस्त्वनिरूपणदापञ्चाशत् ।। ७ ।। वीतराग जिनेन्द्र देव के द्वारा जो प्रमाणसे सिद्ध एवं उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य युक्त पदार्य कहे गये हैं वे असत्य है या सत्य, इस प्रकार की जो जीव शंका करता है वह अपने सम्यग्दर्शनको नष्ट करता है। इस प्रकारसे यहाँ सम्यग्दर्शनके 'शंका' दोषका निर्देश किया गया है ॥४७॥ देव, असुर और चक्रवर्तियोंकी मनोहर निर्मल लक्ष्मीको दोखकर इस रूपसे वह सम्पत्ति मेरे लिये प्राप्त हो; ऐसी जो इच्छा करता है वह कांक्षा दोषके कारण अपने सम्यादर्शनको नष्ट करता है॥१८॥ मलसे लिप्त अथवा महान तपसे अतिशय पीडाको प्राप्त हुए संयमी जनोंको देखकर जो मनुष्य अतिशय घृणाको करता है वह अज्ञानी अपने सम्यग्दर्शनको नष्ट करता है। विचिकित्सा दोषसे मलिन करता है ।। ४९ || जो कन्द एवं फलों-आदिको खाकर भयानक व्रतोंकापंचाग्मितप आदिका-आचरण करनेवाले कुलिंगियोंको देखकर 'ये भी कोंका क्षय करनेवाले व्रतोंके धारक है ऐसा विचार करता है वह अपने सम्यादर्शनको नष्ट करता है अन्यदृष्टिसंस्तव दोषसे दूषित करता है।॥५०॥ जिनका चित्त मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र रूप परिणामोंसे सहित व तत्वार्थप्रधानसे रहित है ऐसे (मिथ्यादृष्टि) असंयमी जनोंकी मनसे भी आराधना करनेवाला प्राणी महान् फलको देनेवाले अपने सम्यक्त्वरूप वृक्षको काटता है-अन्यदृष्टिप्रशंसा दोषसे कालषित करता है ॥५१॥ मिथ्यात्वरूप मलको नष्ट करके जिनेन्द्ररूप चन्द्र के प्रति निर्मल भक्तिसे युक्त हुआ जो प्राणी विशुद्ध सम्पादर्शनको धारण करता है वह मुक्तिरूप स्त्रीको प्रास करता है ।। ५२॥ इस प्रकार बाक्न श्लोकोंमें मिथ्यात्व व सम्यक्त्वका निरूपण हुआ।॥७॥ 1स न्ययोज्जव। २ स युता विमोहितः । ३ स वेत्ति । ४ स ४८ || ५, स निरीक्ष, निरीक्ष्य। ६ स om. || ७ स ४९॥ ८ स दग्धा', दिग्धावन । ९स५.|| १० स "लिंगिनो, व्रतं | 11 स "तिप्रति । १२ स ५ ॥ १३ स चित्रजा, चित्रजान, निद्रजा। 1४स समक्त। १५ स ५२॥ १६ स "भावितास "कामिनी । 1८ स ५.३ ॥ १९ स om. इति, तृपंचाशत्, त्रि, इति सदसत्स्वरूपनिरूपणम् ।
SR No.090478
Book TitleSubhashit Ratna Sandoha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages267
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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