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________________ 189: ८-१० ८. ज्ञाननिरूपणात्रिंशत् 185) यवज्ञजीवो विधुनोति कर्म तपोभिचप्रे में 'वकोटिलक्षं । ज्ञानी तु चेकक्षणतो हिनस्ति तदत्र कर्मेति जिना वदन्ति ॥ ६ ॥ 186) 'चौरादिदापातनूजभूपेरहार्यमयं सकले ऽपि लोके । धनं परेषां नयनैरश्यं ज्ञानं नरा "अन्यतमा वहन्ति ॥ ७ ॥ 187 ) विनश्वरं पापसमृद्धिवक्षं विपाकःखं बुधनिन्दनीयम्' । ० सदन्यथाभूतगुणेन तुल्यं' ज्ञानेन राज्यं न कदाचिदस्ति ॥ ८ ॥ 188) पूज्यं स्वदेश भवतीह राज्यं ज्ञानं त्रिलोके ऽपि सदर्चनीयम् । ज्ञानं विवेकाय मदाय राज्यं ततो न से सुरुयगुणे भवेताम् ॥ ९ ॥ 189) तमो धुनीते कुरुते प्रकाशं शर्म विधते विनिहन्ति कोपम् । सनोति धर्म विषुनोति पापं ज्ञानं न कि कि कुवते नराणाम् ॥ १० ॥ ४९ तत् तु कर्म अत्र ज्ञानी व एकक्षणतः हिनस्ति इति जिनाः वदन्ति ॥ ६ ॥ धन्यतमाः नराः चौरादिदायादतनूजभूपैः अहायं, सकले ऽपि लोके अच्छे परेषां नयनैः अदृष्यं ज्ञानम् (एव) धनं वहन्ति ॥ ७ ॥ विनश्वरं पापसमृद्धिदक्षं विपाकदुःखं बुधनिन्दनीयं राज्यं तदन्यथाभूतगुणेन ज्ञानेन तुल्यं कदाचित् न अस्ति ॥ ८ ॥ इह स्वदेशे राज्यं पूज्यं भवति । त्रिलोकेऽपि ज्ञानं सदनीयम् । ज्ञानं विवेकाय, राज्यं मदाय (भवति) । ततः ते तुल्यगुणे न भवेताम् ॥ ९ ॥ ज्ञानं नराणा (विषये) किं कि न कुरुते । तमः श्रुनी । प्रकाशं कुरुते । शमं विषते । कोपं विनिहन्ति । धर्मं तनोति पापं विषुनोति ॥ १० ॥ जीवः जिन भगवानने कहा है कि अज्ञानी जीव लाखों करोड़ो भव तक कठोर तप करके जितने कर्मकी निर्जरा करता है, ज्ञानी उतने कर्मकी निर्जरा एक क्षण में ही कर देता है ।। ६ ।। इस ज्ञानरूपी धनको चोर डाकू चुरा नहीं सकते, भागीदार कुटुम्बी पुत्र आदि बांट नहीं सकते, राजा हर नहीं सकता, तीनों लोकों में यह ज्ञान पूज्य है । दूसरे लोग इस ज्ञानरूपी घनको अपनी आँखोंसे देख नहीं सकते। ऐसे ज्ञानरूपी धनको संसारके श्रेष्ठतम भाग्यशाली पुरुष ही धारण करते हैं। भावार्थ-धनको तो चोर चुरा सकता है पुत्रादि बाँट सकते हैं, राजा हर सकता है, पड़ोसी देखकर डाह करते हैं । किन्तु ज्ञानरूपी घन ही ऐसा धन है जिसे न कोई चुरा सकता है न बांट सकता है, न हर सकता है। जिनके पास यह शानरूपी धन है वे ही धन्य हैं ॥ ७ ॥ राज्य भी ज्ञानको समानता नहीं कर सकता। क्योंकि राज्य विनश्वर है एक दिन अवश्य नष्ट हो जाता है । किन्तु ज्ञान अविनाशी है वह आत्माका गुण है। राज्य पापको बढ़ाने वाला है किन्तु ज्ञानसे पापका नाश होता है । राज्यका फल अन्त में दुःख हो है, शत्रुओंको चिन्ता सदा सताती रहती है । किन्तु ज्ञानका फल मोक्ष सुख है । राज्यकी पण्डितजन निन्दा करते हैं किन्तु ज्ञानको प्रशंसा करते हैं। इस तरह राज्यसे ज्ञान और ज्ञानले राज्य विपरीत गुणवाला होने से कभी भी राज्य ज्ञानकी बराबरी नहीं कर सकता | ८ || इस संसारमें राज्य या राजाकी पूजा केवल अपने राज्यमें ही होती है और वह तभी तक होती है जब तक राज्य रहता । किन्तु ज्ञानकी पूजा तीनों लोकोंमें सदा होती है। ज्ञान हित अहित, हेय उपादेय आदिवा विवेक कराता ह किन्तु राज्य मद पैदा करता है। अतः ज्ञान और राज्य समान गुणवाले कैसे हो सकते हैं ॥। ९ ॥ ज्ञान मनुष्यों के लिये क्या क्या नहीं करता । वह अज्ञानरूपी अन्धकारको दूर करता है । आत्मामें स्वानुभूतिरूप प्रकाशको उद्भूत करता है । परिणामोंमें शान्ति लाता है, कोषका विनाश करता है, धर्मभावको विस्तारता है और १ स नवकोटि । २ स ज्ञानी हि । ३ स चोरादि । ४ स धने । ५ स वान्य ६ स निन्दनीयां । ७ स तदन्यथा भूत ८ स तुल्यः । ९ स स्वदेहे । १० स रायं । ११ भने । सु. मं. ७
SR No.090478
Book TitleSubhashit Ratna Sandoha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages267
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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