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सुभाषितसंदोहः
[ 190 : ८-११ 190) यथा यथा ज्ञानवलेन जीवो जानाति तत्वं जिननायदृष्टम् ।
तथा तथा धर्ममतिः' प्रास्ता प्रमायते पापविनाशशक्ता ॥११॥ 191) आस्तो महाबोषबलेन साप्यो मोक्षो विवाषामलोल्ययुक्तः।।
धर्मार्थकामा अपि नो भवन्ति ज्ञानं बिना तेल तवचनीयम् ॥१२॥ 192) सर्वे ऽपि लोके विषपो हितार्था ज्ञानावृते नेव भवन्ति जातु।
अनारमनीयं परिहतुकामास्तदपिनो शानमतः पयन्ति ॥१॥ 193) शक्यो विजेतुं न मनःकरोन्द्रो गन्तुं प्रवृत्तः प्रविहाय मार्गम्।
ज्ञानाकुशेनात्र विना मनुष्यविनाशं मत्तमहाकरीव ॥ १४ ॥ शानबलेन यथा यथा जिननापदृष्ट तत्त्वं जानाति तपा तपा (तस्य) पापविनाशभक्ता प्रशस्ता धर्ममतिः प्रजायते ।। ११ ॥ महाघोषवलेन साध्यः बिबाषामलसोमययुक्तः मोक्षः (सावत) आस्ताम् । धर्यिकामाः अपि ज्ञानं विना नो भवन्ति । तेन तत् अपनीयम् ॥ १२ ।। लोके जातु सर्व ऽपि विधयः कानाइते हिताः नैव भवन्ति । मतः तदथिन अनारमनीयं परिह - कामाः शान श्रर्यान्त ।। १३ ॥ मत्तमहाकरी अशं विना इव मनुष्यैः अत्र मान प्रविहाय गन्तुं प्रवृत्तः मनः करीन्द्रः जाना
पापोंका विनाश करता है ॥ १० ॥ जैसे जैसे शानके रलसे यह जीच जिनेन्द्रदेयके द्वारा केवलशानरूपी लोचनों से देखे हुए जीव अजीव आदि तत्त्वोंको जानता है वैसे वैसे उसकी धार्मिक बुद्धि प्रशस्त होती जाती है, जो समस्त पापोंका विनाश करने में समर्थ है। अर्थात् ज्ञानके द्वारा तत्त्वोंको जान लेनेसे धार्मिक भावनामें दृढ़ता
और निर्मलसा आती है और उससे पापोंका विनाश होता है ॥ ११ ॥ महाबोष अर्थात् केवलज्ञानके बलसे ही प्राप्त होनेवाले अव्याबाष अर्थात् बाधारहित और अमल अर्थात् कर्ममलसे रहित शाश्वत सुखके भण्डार मोक्ष की बात जाने दो। मानके बिना तो धर्म अर्थ और काम पुरुषार्थ भी नहीं हो सकते । अतः शान पूज्य है। भावार्थ-चार पुरुषार्थों में से सर्वश्रेष्ठ पुरुषार्थ मोक्ष है। वह मोक्ष स्थायी सुखका भण्डार है और वह केवलज्ञान प्राप्त होने पर ही प्राप्त होता है। किन्तु मोक्ष जनसाधारणके लिये बद्दश्य है उसे वे देख नहीं सकते अतः उसके प्रति उनकी श्रद्धा होना भी कठिन ही है। अतः शानसे मोक्ष सुख मिलता है ऐसा कहने पर लोग ज्ञानके प्रति अनादर व्यक्त कर सकते हैं, इसलिये ग्रन्यकार मोक्षको बात दूर रखकर कहते हैं कि लोग जिन धर्म अर्थ और काम पुरुषार्थके प्रति लालायित रहते है वे भी ज्ञानके बिना दुर्लभ हैं। बिना ज्ञानके न धर्माचरण किया जा सकता है, न धन कमाया जा सकता है और न सुख भोगा जा सकता है ॥ १२॥ इस संसार में जितने भी विधि विधान हैं वे सब ज्ञानके बिना कभी भी कल्याणकारी नहीं होते। अर्थात् समक्ष बूझकर करने पर हो वे सब व्यवहार हितकारी होते हैं। इसीलिये अपने अहितसे बचनेके इच्छुक और हिसके अभिलाषी पुरुष ज्ञानका ही आश्रय लेते हैं ॥ १३ ॥ जैसे मदोन्मत्त हाथी अंकुशके बिना वशमें नहीं होता। वैसे ही मनरूपी मदमत्त हायो जब सुमार्गको छोड़कर कुमार्गमें जाने लगता है तो मनुष्य ज्ञानरूपी अंकुशके बिना उसे वशमें नहीं कर सकते । अर्थात् मनुष्योंका मन मदमस्त हाथोके समान उम्छुसल है । जब वह कुमार्गमें जाता है तो उसे शानके बलसे ही रोका जा सकता है। दूसरा कोई उपाय नहीं है ॥ १४ ॥ ज्ञान मनुष्यका तीसरा नेत्र है जो समस्त तत्त्वों और पदार्थोको देखने में समर्थ है। उसे किसी अन्य प्रकाशकी अपेक्षा नहीं है और वह बिना
१स मति । २१ प्रशक्ताः, प्रसक्ताः शमस्ता। ३ स शफ्ताः । ४ स महावाप । ५ स सांधोोनो। ६ स विधियो यथा । ७स भवतु 1८ समनः करीन्द्रो।