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280 : ११-१२ ]
११. जरानिरूपणचतुर्विंशतिः
278) पुवतिरपरा तो भोक्तव्या त्वया मम संनिधाविति निर्वादितस्तूष्णां योषां न मुखसि कि शठ । निगदितुमिति श्रोत्रोपान्तं गतेव जराङ्गना पलितमिषतो न स्त्रीमन्य' यतः सहते ऽङ्गना ॥ १० ॥ 279) वचनरचना जाता व्यक्ता मुखं बलिभिः श्रितं नयनयुगलं ध्वान्तायातं श्रितं पलितं शिरः । विघटितगत पाव हस्तो सवेपथुतां गतौ
तदपि मनसस्तृष्णा कष्टं व्यपैति " म केहिनाम् १२ ॥ ११ ॥ 280) सुखकरतनुस्पर्शा गौरी करग्रह लालितो नयनदयितां यशोद्भूतां शरीरमलप्रवाम् । घृतसरलता बुद्धो यष्टि न विभूषितां त्यजति तरुण त्यक्त्वाप्यन्यां जरावनितासखीम् ॥ १२ ॥
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विषयविरति धत्ते । परं शमं (च) नयते । व्यसननिहति दत्ते । अथ मंञ्चितां विनोति सुते ॥ ९ ॥ श वया मम संनिधौ अपरा युवतिः नो भोक्तव्या इति निगदित ( एवं ) सूष्णां योषां किं न मुञ्चसि । इति निगदितुम् इव जराङ्गना श्रोत्रयान्तं पलितमितो गता । यतः अङ्गना अन्यां स्त्रीं न सहते । १० ११ वचनरचना अभ्यक्ता जाता । मुखं बलिभिः श्रितम् नयनयुगलं ध्वान्ताघ्रातम् । पलितं शिरः श्रितम् । पादौ विघटितगती । हस्तो सवेपथुतां गतौ । तदपि तृष्णा देहिनां मनसः न व्यपैति कष्टम् ॥ ११ ॥ वृद्धः सुखकरतनुस्पर्शा, गौरीं, करग्रहृलालितां नयनदयिता, वंशोद्भूतां शरीरबलप्रदां घृत
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पुत्र भी अपनी माज्ञा नहीं मानता है। इस प्रकार वृद्धावस्था में अत्यंत दयनीय स्थिति होती है ॥ ८ ॥ परंतु ऐसा करने पर भी यदि हित बुद्धिसे विचार किया जाय तो बुढ़ापा एक सरहसे इस प्राणीका प्रायः हित भी करता है । देखो - बुढ़ापा आने पर प्रायः विवेको पुरुषोंकी बुद्धि धर्म में लगती है । अति पवित्र नीतिका आच रण होने लगता है । विषयोंसे विरक्ति सहज का जाती है । चित्तमें अभूतपूर्वं शांति-प्रशम भाव उत्पन्न होता है । पाप बुद्धि नष्ट हो जातो है । मनमें श्रेष्ठ पवित्र विनय उत्पन्न होता है ।। ९-१० ॥ तथा वृद्धावस्था में यह जरारूपी स्त्रो पलित केशके रूपमें मानों कानके समीप यह कहनेके लिये आयी हैं कि तूने मेरी संगतिकी है । अब पुनः दूसरी स्त्रीको नहीं भोगना । ऐसा कहने पर भी हे शठ तू इस तृष्णारूपी स्त्रीको क्यों नहीं छोड़ता । क्योंकि कोई भी स्त्री अन्य स्त्रीको अपने सौतके साथ आसक्त होना सहन नहीं करतो । जरा कहतो है मैं तुम्हारी हितकारिणी स्त्री आ गई हूं। मेरे सामने इस दुष्ट तृष्णाका संपर्क न करना चाहिये। इसको संगतिसे तुमने आज तक नाना कष्ट उठाये । वृद्धावस्थामें मनुष्यकी भाषा अस्पष्ट होती है । मुख पर झुर्रियाँ पड़ जाती हैं। दोनों नेत्र ज्योति मंद होनेसे अंध हो जाते हैं । बाल सफेद होनेसे शिर पलित हो जाता है। दोनों पैर टेड़े मेढ़े पड़ने लगते हैं । दोनों हाथ कंपने लगते हैं । सो भो इसके मनकी तृष्णा नहीं मिटती । यह बड़े खेदको बात है ॥ ११ ॥ वृद्धावस्था आने पर मनुष्य यद्यपि जिसका शरीर स्पर्श सुखकर है, जो गौर वर्णवाली है, जिसका पाणिग्रहण कर प्यार किया, जो नेत्रको तृप्त करती है, कुलीन है, उच्च कुलमें उत्पन्न हुई हैं, जिसने आज तक
१] गदिता, गदितं तृ । २ स मुञ्चति । ३ स सतः, सताम्, शठां:, सगं शयं । ४ स श्रोतां । ५ स पानं, "पांते, यांतं । ६ स श्रीमन्यां । ७ स याता, जाला, जाता व्यक्ता । ८ स सूतं श्रुतं । ९ स शितं श्चितं सितं । १० स सर्वेपयतां, पितां समुखं वलिभिः सुतं नयनयुगलं वेधिलां गतौ । ११ स व्युपैति । १२ स देहिना । १३ स पूर्व