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________________ सुभाषितसंदोहः [ 283 : ११-१५ 281) त्यजसि न हते तृष्णायोपे जराङ्गनया नरं रमितवपुषं षिक्त स्त्रीत्वं शठे ऋषयोजिाते। इति निगदिता कर्णाभ्यणे गतः पलितेरियं तदपि न गता तुष्णा का वा नु मुजति वल्लभम् ॥ १३॥ 282) त्यजत' विषयात् दुःखोत्पत्तो' पटूननिशं खलान् भजत विषयान जन्मारानिरा सकतौ हितान् । जरयति यतः काल: कार्य निहन्ति च जीवित "थदिमिति वा कर्णोपान्ते मतं पलितं जना॥१४॥ 283) हरति विषयान् वण्डालम्बे करोति गतिस्थिती स्खलयति पनि स्पष्टं नार्थ विलोकपितुं क्षमा। परिभवकतः सर्वानचेष्टास्तनोस्यनिवारिता: कुनृपमतिबहे हं नृणां जरा परिजम् ॥१५॥ सरलतां, पर्वविभूषिता, तरुणी त्यक्त्वापि अन्यां जरावनिताखों (सुखकर-इत्यादि विशेषणविशिष्टां) यष्टि न त्यजति ॥ १२ ॥ शाठे, हते, अपयोज्सिते, तृष्णापोषे, जराङ मनया रमितवपुष नरं न स्पजसि । ते स्त्रीत्वं धिक् । इति काम्यर्णे गतेः पलितः तृष्णा निमविता । तदपि इमं न गता। का नु वा बल्लभं मुश्वति ।। १३ ॥ जनाः, अनिशं दुःखोत्पत्तौ पटून् खलान् विषयान् त्यजत 1 जन्मारातेः निरासकृतो हितान् विषयान् भषत । यतः कालः कार्य जरयति । जीवितं च निहन्ति । हति वदितुं वा पलित कर्णोपान्ते गतम् ।। १४ ।। जरा कुनुपमतिवत् विषयान् हरति । दण्डालम्बे गतिस्थिती करोति । पषि शरीर भोगसे शरीरको बल-उत्साह प्रदान किया, माया, कपट, छल न करते हुये सच्ची पतिव्रता रहकर जिसने सरलता, ऋजुता धारण को है, धर्म पर्वसे जो विभूषित है ऐसी धर्म पलीको छोड़ देता है किंतु जरारूपी स्त्रोकी जो प्यारी सखी है, जिसका सनुस्पर्श सुखकर है, जो सफेद है, जिसको हाथमें पकड़ना लाभदायक लगता है, जो नेत्रका काम करती है, जो वंश (बांस) से बनी हुई है, जिसको पकड़ने पर शरीरमें बल आता है, जो सीधी सरल है , वक्र नहीं, जो पर्वोसे (गांठ) से सुंदर दिखाई देती है उस तरुण यष्टीरूपी स्त्रीको छोड़ना नहीं चाहता । यष्टीको पकड़ कर उसके सहारे चलता है ॥ १२ ॥ वृद्धावस्थामें कानों तक गये हुये सफेद केश मानों तृष्णारूपो स्त्रीको बार बार धिक्कारते हुये यह बात कहते हैं कि-हे अभागी तृष्णारूपी स्त्री अब यह पुरुष जरारूपी स्त्रीसे प्रेम करने लगा है। अब भी तू इसको छोड़ती नहीं। हे शठे तेरे स्त्रीत्वको धिक्कार है। तूने सब लज्जा छोड़ दी हैं। क्योंकि जो श्रेष्ठ स्त्रियां होती हैं वे अपने सामने अपने सौतके साथ, अपने पतिको रमते हुये देखना नहीं चाहती । अब यह पुरुष जरारूपी स्त्रीके चक्करमें फंसा है | अब इसके साथ रमना तुझे धिक्कार है। परंतु यह तृष्णारूपी स्त्री ऐसी निर्लज्ज है कि इस पुरुषको अब भी छोड़ना नहीं चाहती। अथवा ठोक है। केवल दूसरेके धिक्कारनेसे कोई कैसे अपने प्यारे वल्लभको छोड़ सकता है ।। १३ ।। अरे सज्जनो, जो विषय सदा नानाप्रकारके दुःख देनेमें पटु है, महा दुष्ट हैं उनका त्याग करो। और जो जन्म-मरणका नाश करने वाले परम हितकारी हैं उनका अवलंबन करो। क्योंकि काल एक एक समय करके शरीरको जीर्ण बना रहा है। जीवन प्रतिक्षण नष्ट हो रहा है। ऐसा कहनेके लिये हो मानों पलित हये केश कानों तक गये हैं ॥ १४ ॥ जिस प्रकार दुष्ट राजाकी दुष्ट बुद्धि दूसरोंके देश-राज्यका हरण करना चाहती है, लोकोंको दंड देती १ सवालमा, वल्लभ । २ स सजति । ३ स त्पत्ति । ४ स निराश, मिरासकृतो, निरासा । ५ स विदितु । ६ स नाधं । ७ स वारिता, वारिता ! ८ स परा For जरा । ९ स ज़'भिते ।
SR No.090478
Book TitleSubhashit Ratna Sandoha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages267
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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