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सुभाषितसंदोहः
415) बाधाव्य धावकीर्णे विपुलभववने भ्राम्यता संचितानि Ear कर्मेन्धनानि ज्वलित शिखिवदत्यन्तदुःखप्रदानि । यद्दते नित्यसौख्यं व्यपगतविपदं जीव मोक्षं समीक्ष्प बाह्यान्तन्यमु तपसि जिनमते तत्र तोषं कुरुष्व ॥ १५ ॥ 416) एको मे शाश्वतात्मा सुखमसुखभुजो ज्ञानदृष्टिस्वभावो नायक चिशि मे तनुधन करणभ्रातृभार्यासुखादि । कर्मोद्भूतं समस्तं चपलमसुखदं तत्र मोहो मुषा मे पर्यालोच्येति' जीव स्वहितमवितथं मुक्तिमार्ग" श्रय स्वम् ॥ १६ ॥ 417) ये बुध्यन्ते ऽत्र तस्वं न प्रकृतिचपलं ते ऽपि शक्ता निरोद्धुं प्रोद्यत्कल्पान्तवातक्षुभितजलनिधिस्फीत 'बीचिस्यवो था । प्रागेवान्ये मनुष्यास्सरलतरमनोवृत्तयो दृष्टनष्टा
स्तं उचेत दुगेत स्थिर परमसुखं त्वं तदा किं न यासि ॥ १७ ॥
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[ 417 : १६-१७
संचितानि ज्वलितशिखिवत् अश्यन्तदुःखप्रदानि कर्मेन्धनानि दग्ध्वा यत् समीक्ष्य व्यपगत विपदं नित्यसौख्यं मोक्षं दत्तं तत्र बाह्यान्तर्ग्रन्यमुक्ते जिनमते तपसि स्वं तोषं कुरुष्व ।। १५ ।। असुखभुजः मे शाश्वतात्मा एकः सुखं ज्ञानदृष्टिस्वभावः तनुचनकरण भ्रातृभार्यासुखादि अन्यत् किंचित् में निजं न समस्तं कर्मोद्भूतं चपलम् असुखदम् । तत्र मे मोहः मुषा । है जीव, इति पर्यालोच्य स्वं स्वहितम् अवितथं मुक्तिमार्ग श्रय ॥ १६ ॥ अत्र ये तत्त्वं दुष्यन्ते, ते अपि प्रोद्यत्कल्पान्तवातक्षुभितजलनिषिस्फीतवीचिस्यदः वा प्रकृतिपलं ( मन ) निरोद्धुं न शक्ताः । प्राकू एवं तरलसरमनोवृत्तयः अन्ये मनुष्याः दृष्टनष्टाः । तत् एतत्तः ईदृक् तदा त्वं स्थिरपरमसुखं किं न यासि ॥ १७ ॥ रे पापिष्ठ, अतिदुष्ट, व्यसनगतमते, निन्द्यकर्मप्रसक्त,
गये एवं जलती हुई अग्निके समान भीषण दुःख देनेवाले कमरूप इन्धनोंको जला करके जो तप विघ्न-बाधाओंसे रहित एवं अविनश्वर सुखसे संयुक्त मोक्षको देता है उसका विचार करके तू बाह्य एवं अभ्यन्तर परिग्रहसे रहित ऐसे जिनसंमत उस तपमें सन्तुष्ट हो || १५ || मैं जो यह दुःखको भोग रहा हूँ सो मेरी आत्मा एक, नित्य, सुखस्वरूप एवं ज्ञान दर्शन स्वभाव वाली है। इसको छोड़कर अन्य मेरा अपना कुछ भी नहीं है। शरीर, धन, इन्द्रिया, भाई, स्त्री, और सुख आदि सब कर्मके अनुसार उत्पन्न हुआ है । यह सब अस्थिर एवं दुःखको देनेवाला है । उसके विषयमें मेरा मोह करना व्यर्थ है । इस प्रकार विचार करके हे जीव ! तू जो मोक्षका मार्ग सत्य एवं आत्मा के लिये हितकर है उसका आश्रय ले ॥ १६ ॥ यहाँ जो जीव तत्त्वज्ञ हैं वे मी प्रगट हुई प्रलयकालीन वायुके द्वारा क्षोभको प्राप्त हुए समुद्र की विशाल तरंगोंके वर्ग के समान स्वभावसे चंचल चित्तको रोकने के लिये समर्थ नहीं है । जिनकी मनोवृत्ति अतिशय चंचल थी ऐसे दूसरे कितने ही मनुष्य पहले हो देखते देखते नष्ट हो चुके हैं। इसलिये जब यह चित्त ऐसा अस्थिर है तब हे जीव तु स्थिर उत्कृष्ट सुख (मोक्ष सुख को क्यों नहीं प्राप्त होता है ? ।। १७ ।। हे अतिशय पापिनु, दुष्ट, व्यसनोंमें बुद्धिको लगानेवाले, नीच कार्यमें आसक्त, न्याय-अन्यायको न जाननेवाले, निर्दय व सन्मार्ग से भ्रष्ट बुद्धिवाले ! चूंकि इस पापके
१ स कोर्ण, बाधा, व्याधा व कीर्णे । २स दग्धा । ३ स यद्वत्ते माग । ६ स निरंदधुं । ७स स्फीति, स्फीटवी चिसो वा । ८ स
यद्वते यद्वृत्ते । ४ स पर्यालोम्पेहि । ५ स स्तच्वेतश्च दुगे । ९ स जासि ।