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१६. जीयसंबोधनपञ्चविंशतिः +12) दृष्ट्वा लक्ष्मी परेषां किमिति हतमते खेवमन्तः करोषि
नैषा नेते' न च त्वं कतिपयदिवसंगत्वरं येन सर्वम् । तत्त्वं धर्म विधेहि स्थिरविशवधिया जोष मुक्त्वान्यवाञ्छां
येन प्रध्यस्तबाधां विततसुखमयीं मुक्तिलक्ष्मीमपैषि ॥१२॥ 413) भोगा' नश्यन्ति कालात्स्वयमपि न गुणो जापते तत्र को ऽपि
तज्जीवतान् विमुच व्यसनभयकरानात्मना धर्मबुद्धया। स्वातन्त्र्यायेन याता" विषति मनसस्तापमत्यन्तमुझं
तन्वन्त्येते तु' मुक्ताः स्वयमसमसुख स्वात्मजं नित्यमच्यम् ॥ १३ ॥ 414) धर्मे चित्तं निहिं श्रुतकथितविधि जीव भास्याविधेहि
सम्यक्स्वान्तं पुनीहि व्यसनकुसुमितं कामवृक्ष लुनीहि । पापे बुद्धि धुनीहि प्रशमयमवमा पिछडि पिण्टि प्रमा छिन्ति क्रोधं विभिन्दि' प्रचुरमवगिरीस्ते ऽस्ति चेग्मुक्तिवाञ्छा ॥ १४ ॥
दिवस: सर्व गत्वरं तत् हे जीव, त्वम् अन्यवाञ्छा मुक्या स्थिरविशदधिया धर्म विधेहि, येन प्रध्वस्तपाषां वित्तवसुखमयीं
मुक्त्तिलक्ष्मीम् उपैषि ॥ १२ ॥ भोगाः कालात् स्वयम् अपि नश्यन्ति, तत्र कः अपि गुणः न जायते । तत् हे बीव, व्यसन __ भयकरान् एतान् आत्मना धर्मबुद्धया विमुञ्च । पेन स्वातन्त्र्यात् याताः मनसः अत्यन्तम् उग्रं तापं विदषति । तु स्वयं मुक्ताः एते स्वात्मजम् अयं नित्यम् असमसुखं तन्वन्ति ।। १३ ।। हे जीव, ते मुक्तिवाञ्छा अस्ति चेत् चित्तं धर्मे निषेहि । भक्त्या श्रुतकथितविधि विहि । स्वान्तं सम्यक् पुनीहि। व्यसनकुसुमित कामवृक्षं लुनीहि । पापे बुद्धि धुनीहि । प्रशमयमदमान् शिफ्छि । प्रमादं पिण्डि । कोषं छिन्दि । प्रचुरमदगिरीन् विभिन्द्धि ॥१४॥ हे जीव, बाधाब्याचावकीर्ण विपुलभववने भ्राम्यता
सम्पत्तिको देखकर मनमें क्यों खेद करता है ? कारण कि न तो यह लक्ष्मी रहने वाली है, न वे लक्ष्मीपति रहने वाले हैं, और न तू भी रहने वाला है। यह सब कि कुछ ही दिनमें नष्ट हो जाने वाला है इसीलिये हे जीव ! तू अन्य विषयादिकी इच्छाको छोड़कर स्थिर एवं निर्मल बुद्धिसे धर्मका आचरण कर | इससे तू निर्वाष एवं अनन्त सुखस्वरूप मुक्तिरूप लक्ष्मीको प्राप्त हो सकता है ॥ १२॥ विषयभोग समयानुसार स्वयं ही नष्ट हो जाते हैं और ऐसा होने पर उनमें कोई गुण नहीं उत्पन्न होता है-उनसे कुछ भी लाभ नहीं होता है। इसलिये हे जीव ! तू दुख और भयको उत्पन्न करने वाले इन विषय भोगोंको धर्म बुद्धिसे स्वयं छोड़ दे। कारण यह कि यदि ये स्वयं हो स्वतन्त्रतासे नष्ट होते हैं तो मनमें अतिशय तीव्र सन्तापको करते हैं और यदि इनको तू स्वयं छोड़ देता है तो फिर वे उस अनुपम आत्मिक सुखको उत्पन्न करते हैं जो सदा स्थिर रहनेवाला एवं पूज्य है ॥ १३ ॥ हे जीव ! तुझे यदि मोक्ष प्राप्त करनेकी इच्छा है तो तू अपने चित्तको धर्ममें लगा, आगममें कहे हुए अनुष्ठानको भक्ति पूर्वक कर, अपने अन्तःकरणको भले प्रकार पवित्र कर, दुःखों रूप फूलोंसे व्याप्त कामरूप वृक्षको काट डाल, पापविषयक वुद्धिको नष्ट कर दे; प्रशम, यम एवं दमको विशिष्ट करवृद्धिंगत कर; प्रमादको चूर्ण कर, क्रोधको दूर कर, बोर अतिशय गर्वरूप पर्वतोंको खण्डित कर ॥ १४ ॥ हे जीव ! बाघारूप भोलोंसे व्याप्त ऐसे विशाल संसाररूप वनमें परिभ्रमण करते हुए प्राणीके द्वारा संचित किये
१ नैतेन । २ स उपति, उपैसि, उपैहि । ३ स भोगान्न । ४ सजायते । ५ स जाता। ६ स त्व for तु । ७स भक्स । ८स प्रशमदमयमान । ९स विभिन्ध 1१० स गिरिस्ते ।