SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 124
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [4]] : १६-११ सुभाषितसंदोहः 409) मित्रत्वं याति शत्रुः कथमपि सुकतं' नापहर्तुं समर्थो जन्मन्येकत्र दुःखं जनयति भविना शक्यते चापधातुम् । नैव भोगो ऽय बेरी मृति जननजरादुःसत्तो जीव शश्वत् । तस्मादेनं निहत्य प्रशमशितशरेर्मुक्तिभोग भज स्वम् ॥१॥ 410) रे जीव, त्वं विमुञ्च कणचिचपलानिनियार्थोपभोगा नेभिःख न नोतः किमिह भववने अत्यन्तरोद्रे हतारमन् । तृष्णा चित्त न तेन्यो विरमति विमते ऽयापि पापात्मकेम्पः संसारास्यन्तवुःखत्किथमपि न तवा मुग्ष मुक्ति प्रयाति ॥१०॥ 411) मतस्त्रीनेत्रलोकाविरम रति सुखायोषिता"मन्तदुःक्षात प्रामा" प्रेक्षातितिक्षामतिषतिकमामित्रताषीगृहांश्च । एता"स्तारुण्यरम्या न हि तरलदृशो मोहयित्वा तरुभ्यो चुःखात्पातुं समर्या मरकगतिमितानङ्गिनो जीव जातु ॥११॥ अब शश्वत् मृतिजननजरादासतः[] भोगः वैरी एवं न । तस्मात् प्रश्नमशिनवरैः एनं निहत्य त्वं मुक्तिमोमं भव ॥ ९॥रे जीव, रवं क्षणरुचिष्पलान् इन्द्रियार्थोपभोगान् विमुश्च । हे हतात्मन्, यह अत्यन्तरोने भगवने एभिः व दुःखं न नीतः किम् । हे विमते, अद्यापि पापात्मकम्यः तेभ्यः पित्ते तृष्णा न विरमति। हे मुग्ध, तदा संसारात्पन्तदुःखात् कथमपि मक्ति न प्रयाति ।। १०॥ हे जीव, योषितां मत्तस्त्रीनेत्रलोलात् अन्तदुःखात् रसिसुखात् विरम । एताः तारुष्यरम्याः तरलदृशः वरुण्यः प्रक्षातितिक्षामतितिकरुणामित्रताश्रीगृहान् प्रान्नान् मोहयित्वा नरकगतिम् इवान् अङ्गिनः जातु दुःखात् पातुं न समर्याः ।। ११॥ हे हतमते, परेषां लक्ष्मी दृष्ट्वा अन्तः खेदं किमिति करोषि । एषा न, एते न, त्वं च न । येन कतिपय नहीं होता, वह एक हो जन्ममें प्राणियोंके लिये दुःखको उत्पन्न करता है, तथा उसका नाश भी किया जा सकता है । परन्तु निरन्तर जन्म जरा और मरणके दुःखको देने वाला भोगरूप शत्रु ऐसा नहीं है-यह लौकिक शत्रुके समान कभी मित्रताको नहीं प्राप्त होता, पुण्यको नष्ट करने में समर्थ है, प्राणियोंको अनेक जन्मोंमें दुख देता है, तथा प्रतीकार करनेके लिये अशक्य है। इसीलिये हे जीव ! तू कषायोंके उपशमरूप तीक्ष्ण वाणोंके द्वारा इसको नष्ट करके मुक्ति सुखका सेवन कर ।। ९ ।। हे जीव ! तू बिजलीके समान अस्थिर इन इन्द्रियविषयभोगोंको छोड़ दे। हे दुर्बुद्धि ? क्या तू इन विषयभोगोंके द्वारा अतिशय भयानक इस संसाररूप वनमें दुखको नहीं प्राप्त हुआ है ? अवश्य प्राप्त हुआ है । हे भूखं ! अब भी यदि उन पापरूप विषय मोगोंकी ओरसे तेरी मनोगस तृष्णा नहीं हटती है सो फिर हे मूड ! तू उस संसारके सीव दुःखसे किसी प्रकार भी छुटकारा नहीं पा सकता है ।। १० ॥ हे जीव ! तु मदोन्मत स्त्रीके नेत्रके समान चंचल और अन्तमें दुख देनेवाले स्त्रियोंके विषम सुखसे विरक्त हो जा। जवानीमें रमणीय दिखने वाली ये चंचल नेत्रोंको घारक युवतियां विवेक, क्षमा, बुद्धि, धैर्य, दया, मित्रता और लक्ष्मोके स्थानभूत विद्वानोंको मोहित करके नरक गतिको प्राप्त हुए प्राणियोंको वहकि दुखसे बचानेके लिये कभी भी समर्थ नहीं हो सकती हैं ॥ ११ ॥ हे दुबुद्धि ! तू दूसरोंकी १ स सुकृतां । २ स समर्था, समर्थ । ३ स चापधातं, पातुं । ४ स नैव भोगार्थ, नैव भोगोर्थ, भोनोप्य । ५ स मत । ६ स दुःखदो जीवसश्च । ७ स तृष्णां चेत्तेन। ८ स दुःलान्कथ' | ९स विरति व मु', विरमतिसुखा । १० स । योषितान' । ११ स प्राजो°; प्राज्ञान्ने । रस श्रीगृहांप। १३ स एतां । १४ स मोदयित्वा ।
SR No.090478
Book TitleSubhashit Ratna Sandoha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages267
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy