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[ ११ घाम बेचनेवाले लड़के हैं हमारा मूलरूप महाभारतकी कथाओंमें है। इसीपरसे परस्परमें कथावार्ता चल पड़ती है। मनोवेग अपने अनुभवकी असम्भव घटनाएं सुनाता है और जैसे ही ब्राह्मण विद्वान उसका विरोध करते हैं वह तत्काल उनके पुराणोंसे उसी प्रकारको कथा सुनाकर उन्हें चुप कर देता है। इस प्रकार मनोवेग ब्राह्मणोंने शास्त्रों और धर्मकी बहुत सी असंगत बातें पवनवेगकी समझाता है और पवनवेग जैनधर्मका श्रद्धानी बन जाता है और वे दोनों थावकका सुखी जीवन बिताते हैं।
८. पञ्चसंग्रह–पञ्चसंग्रह मूलका प्रकाशन प्रथम वार १९२७ में माणिकचन्द्र ग्रन्थ माला बम्बईसे हुआ था । उसके पश्चात् १९३१ में बंशीधर शास्त्री सोलापुरके हिन्दी अनुवादके साथ बालचन्द कस्तूरचन्द गांधी धाराशिवकी ओरसे प्रकाशित हुआ था। बन्धक जीव, बध्यमान कर्मप्रकृति, बन्धके स्वामी, बन्धके कारण और धन्धके भेद इन पांचका कथन होनेसे इसका नाम पंचसंग्रह है। यह स्वतंत्र रचना नहीं है। किन्तु प्राकृत माथाबाम निबद्ध पंचसंग्रहका संस्कृत श्लोकोंमें रूपान्तर है। जब तक प्राकृत पञ्चसंग्रह प्रकाशमें नहीं आया था नब तक इसे स्वतंत्र कृतिके रूपमें माना जाता था। किन्तु प्राकृत पञ्चसंग्रह और उसीके अन्तर्गत लक्ष्मण सुत लड्डाके संस्कृत पञ्चसंग्रहके भारतीयज्ञानपीठसे प्रकाशित होनेके पश्चात् यह स्पष्ट हो गया कि अमितगतिका यह पञ्चसंग्रह लड्वाके पञ्चसंग्रहका भी ऋणी है । अमितगतिने उसका बहुत अनुकरण किया है। कुछ विशेष कथन भी हैं। जैसे इसमें तीन सौ त्रेसठ मतोंकी उत्पत्ति विस्तारसे दी है। किन्तु अनुकरण विशेष है।
५. आराधना भगवती-प्राकृत गाथाओंमें निबद्ध आचार्य शिवार्यकी भगवती आराधना अति प्रसिद्ध है । इसमें इक्कीस सौके लगभग गाथाएं है। इसपर अनेक टीकाकारोंने टीका टिप्पण' लिखे हैं। इसमें समाधि मरणको विधिका वर्णन है । आचार्य अमितगतिने उसे संस्कृतके छन्दोंमें रूपान्तरित किया है। इसका प्रकाशन शोलापुरसे मूल भगवती आराधना और उसको विजयोदया टीकाके साथ हुआ था। अमितगतिको रचनामें जो सौष्ठव और लालित्य पाया जाता है उसका दर्शन इस कृतिमें भी होता है। सभी पद्य बहुत सरल सरस और पाठ करनेके योग्य है । मूलका भाव उनमें सुस्पष्ट प्रतीत होता है।
६. भावना द्वात्रिंशतिका-यह एक संस्कृतके उपजाति छन्दमें रचित बत्तीस पद्योंकी भावना प्रधान रचना है। इसे सामायिकपाठ भी कहते हैं। इसमें मनुष्य यह भावना भाता है कि सब प्राणियोंमें मेरा मैत्री भाव रहे। गुणी जनोंके प्रति प्रमोद भाव रहे, दुःखी जीवोंके प्रति करुणा भाव रहे और विपरीत वृत्ति वालोंमें मेरा माध्यस्थ्य भाव रहे। मैंने प्रमादक्श या इन्द्रियासक होकर यदि सदाचारको शुद्धि में दोष लगाया हो
तो वह मेरा दोष मिथ्या हो । एक मेरा आत्मा ही सदा काल रहने वाला है जो निर्मल ज्ञान स्वभाव है। शेष • सव पदार्थ बाह्य हैं। वे सदा स्थायी नहीं हैं कर्म संयोगजन्य है । इत्यादि । रचना जितनी मधुर हैं भाव भी
उतने ही हृदयग्राही है। पढ़कर चित्तवृत्ति प्रशान्त हो जाती है.। अन्तिम श्लोकमें कहा है जो इन बत्तीस पद्योंके द्वारा एकान होकर परमात्माका दर्शन करता है वह अविनाशी पद मोक्ष प्राप्त करता है। इसका प्रकाशन अनेक स्थानोंमे हुआ है । स्व० कुमार देवेन्द्रप्रसाद आराने इसे अंग्रेजो अनुवादके साथ भी प्रकाशित किया था ।
७. सामायिक पाठयह भी संस्कृतके विविध छन्दोंमें एक सौ वीस पद्योंमें रचित एक भावनात्मक रचना है। माणिकचन्द्र ग्रन्यमाला बम्बईसे प्रकाशित सिद्धान्त सारादिसंग्रह (० २१) के अन्तर्गत इसका प्रकाशन हुआ है। इसकी रचनापर गुण भद्रके आत्मानुशासनका स्पष्ट प्रभाव है । इसमें भी वही भाव विस्तारसे वर्णित है जो मंक्षेपमें भावना द्वात्रिंशतिकामें वर्णित है। कविता भी वैसी ही सरस और सरल तथा हृदयग्राही है।
ये मात ही रचनाएँ उपलब्ध हैं। १. देखो 'आराधना और उसकी टीकाएँ,' बैन सा. और इति. पृ. ७४ आदि ।