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________________ 264 : १०-२२] १०. जातिनिरूपणपविशतिः 262) विपप्तिसहिताः श्रियो ऽसुखयुतं सुखं अन्मिनां वियोगविषदूषिता जगति सम्जनः संगतिः । जोहाबिलं वपुमरणनिन्दितं प्राणिनां" तदाप्ययमनारतं हतमतिर्भवे रज्यति ॥ २०॥ 263) 'अशान्तहुतभुक्शि खाकवलितं जगन्मविरं सुखं विषमवातभुग्नसनवन्चलं कामजम् । जलस्थशशिचनाला भुवि विलोक्य लोकस्थिति विमुश्चत जनाः सदा विषयमूर्छनो तस्वतः ॥ २१ ॥ 264) भवे न कठिनस्तनीस्तरललोचनाः२ कामिनी अर्धरापरिढधियश्चपल चामरभाजिता:"। रसादिविषयांस्तथा'"सुखकराल का सेवते भवेद्यवि जनस्प नो तृणशिरो ऽम्युज्जिीवितम् ॥ २२ ॥ व्यसनसंततेः न विम्यति ॥ १९ ॥ जगति जन्मिनां प्राणिनां श्रियः विपत्तिसहिताः । सुखम् असुखयुप्तम् । सजनैः संगतिः वियोगविषदूषिता । वपुः रुजोरुगबिलं मरणनिन्दितम् । तदपि अयं हतमतिः अनारतं भवे रज्यति ॥ २० ॥ हे जनाः, बगमन्दिरं अपान्तहुतभुकिशखाकवलितम् । कामजं सुन विषमवातभुम्नसनवच्चलम् । भुवि बलस्वशशिवम्बलां लोकस्थिति तत्त्वतः विलोक्य विषयमूर्छनां सदा विमुञ्चत ॥ २१ ॥ अत्र भत्रे यदि जनस्य जीवितं तृणशिरोम्बुबह नो भवेत्, कः कठिपर । विधि दैवभाग्य भुजंगके समान टेढ़ा चलता है। कभी वैभवके शिखरपर चढ़ाता है तो कभी विपत्तिको खाई में गिराता है। आज श्रीमंत है तो कल दरिद्री बनकर घूमता फिरता है । जीवन पवनवेगकी तरह चचल है ! धन कमाने में कष्ट । उसकी रक्षा करनेमें कष्ट। अंतमें किसी कारणसे धनका वियोग होनेपर यह जीव अति कष्टो होता है । यौवन शीघ्र ही नष्टप्राय होता है । तथापि यह जोव संसारकी नानाविध संकट परंपरासे भयभीत होता नहीं। यह बड़ा आश्चर्य है ।। १९ ।। यद्यपि इस संसारमें जीवोंको जो संपत्ति मिलती है वे विपत्तियोंसे सहित होती है। सुखके अनंतर दुःख अपना स्थान जमाता है । सन्जनोंकी संगति वियोगरूपी विषदोषसे दूषित है। शरीर रोग रूपो सर्पका बिल है। जन्म मरणसे सहित है। तो भी जिसकी बुद्धि जिसका विवेक नष्ट हुआ है ऐसा यह जीव निरंतर इस दुःखसय संसारमें ही अनुरक्त होता है। संसार सुखमें ही आसक्त होता है । यह बड़ा आश्चर्य है ।। २० ।। यह जगत् रूपी महल असातारूपी अग्निको प्रज्वलित ज्वालासे सर्वदा जलता रहता है । काम विकार जन्य सुख विषम वायु फूत्कार छोड़ने वाले सर्पकी जिह्वाके समान चंचल है। यह लोकस्थिति-लोकमें दीखने वाली जो भी वस्तु है वह सब जल में दोखने वाले चंद्रबिंबके समान चंचल है। ऐसा देखकर हे भव्य जीवों, ययार्थ तत्त्वज्ञान प्राप्त करके इन विषयोंकी वांछाका तया सब प्रकारके परिग्रह मूर्छाका सर्वथा त्याग कर दो ॥ २१ ।। यदि इस संसारमें मनुष्यका जीवन तुणके शिरोभागपर पड़ने वाले जल बिंदुके समान चंचल क्षणभंगुर न होता तो, ऐसा कोन पुरुष है कि जो कुंभकलश समान कठिन स्तन १ स सपत्ति , सपन्नि । २ स थियो सु, श्रियो दुख° , ३ स रखो । ४ स जन्मिनां for प्राणिनां, प्राणितं । ५ स स्पति, रति, रपते, रज्यते । ६ स असात', अशात । ७ स भुक्षिसा', भुक्शिा ' । ८ स "भुन । ९ स चंचला, चंचलं । १० स विमुचति । ११ स जनां । १२ °लोचना कामिनीं। १३ स °घरापति° । १४ स श्रियं । १५ स चपला । १६ स भ्राजिता । १७ स स्तथा सुख° । १८ स का। १९ स 'यदि for भवेद्यदि । २० स वृतशिरोवु । २१ स जीवितां ।
SR No.090478
Book TitleSubhashit Ratna Sandoha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages267
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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