SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 84
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ هوا सुभाषितसंोहः I 265 ) हसन्ति धनिनो' जना गतवना यवन्त्यातुराः पठन्ति कृतबुद्धयो ऽकृतधियो ऽनिशं शेरते तपन्ति मुनिपुङ्गवा विषयिणो रमन्ते तथा करोति नटनर्तनक्रममथं भवो जम्मिताम् ॥ २३ ॥ 266) न किं तरललोचना समदकामिनी वल्लभा ४ विभूतिरपि भूभुजां धवलचामरचछत्रभृत् । भरच्चलित दीपवज्जगवियं विलोक्यास्थिरं परं तु सकला" जनाः कृतधियो बनान्ते गताः ॥ २४ ॥ 267) इति प्रकुपितोरगप्रमुख भङ्गुरां सर्वदा निधाय निजचेतसि प्रबल 'दुःखवां संसृतिम् " । विमुत परिग्रहमनार्जवं सज्जना बोच्छत सुखामृतं रसितुमस्तसर्वाशुभम् ॥ २५ ॥ [ 267 : १०-२५ नस्तनीः तरललोचनाः कामिनीः, चपलचामरभ्राजिताः घरापरिवृढश्रियः तथासुखकरान् रसादिविषयान् न सेवते ? ।। २२ ।। धनिनः जनाः हसन्ति । गतधनाः आतुराः सवन्ति । कृतबुद्धयः पठन्ति । अकृतधियः अनिशं शेरते । मुनिपुङ्गवाः तपन्ति । तथा विषयिणः रमन्ते । अयं भवः जन्मिनां नटनर्तनक्रमं करोति ॥ २३ ॥ तरललोचना समदकामिनी वल्लभा न किम् । भूभुजां धवलचामरच्छ्त्रभूत् विभूतिरपि (वल्लभा न किम् ) परं तु कृतधियः सकला जनाः इदं जगत् मरुच्चलितदीपवत् अस्थिरं विलोक्य वनान्ते गताः ॥ २४ ॥ हे सज्जनाः, इति प्रकुषितोरगप्रमुखभङ्गुरां संसृति सर्वदा निजचेतसि युगलको धारण करने वाली और चंचल नेत्रवाली कामिनियों का संसर्ग न करता । तथा ढोलते हुये चामरोंसे शोभित पृथ्वीपतिके राजवैभवको सेवन न करता । तथा मधुर रसादि पंचेंद्रियोंके विषयों को सेवन न करता । अर्थात् इन विषयोंको छोड़नेकी इस जीवको कदापि इच्छा नहीं होती । परंतु इसका जीवन पानीके बुलबुले के समान क्षणभंगुर होने से इस जीवको स्वयं इन विषयोंको छोड़कर चला जाना पड़ता है। इसलिये तत्त्वज्ञानी अपने जीवनको चंचल जानकर इन विषयोंको स्वयं त्यागकर तपस्वी बनकर आत्मकल्याणकी साधना करते हैं || २२ || जिनको भाग्यवश धन मिलता है वे आनंदसे हंसते हैं । देववश जिनका धन चला जाता है वे शोकाकुल होकर रोते हैं । जिनको कुछ बुद्धि क्षयोपशम प्राप्त है वे शास्त्र पढ़ते हैं। जिनको बुद्धि नहीं क्षयोपशम नहीं वे निरंतर प्रमादमें नींद लेने में जीवनको खोते हैं । जो मुनिश्रेष्ठ संसारसे विरक्त होते हैं वे तपोवन में जाकर तप करते हैं, आत्मसाधना करते हैं । जो विषयोंके अनुरागी हैं वे पंचेंद्रिय विषयों में ही रमते हैं । इस प्रकार यह जीव इस संसाररूपी रंगभूमिपर नटके समान विविध क्रिया करता रहता है || २३ || जिनके लोचन तरल हैं चंचल हैं, कामके मदसे विह्वल वे प्रिय कामिनियां क्या अस्थिर नहीं है। श्वेत चामर और छत्रसे शोभित राजा महाराजाओं की विभूत्ति भी क्या अस्थिर नहीं है । इस प्रकार पवनके द्वारा चलित होने वाली दीपककी लोके समान इस संपूर्ण जगत् को अस्थिर देख बुद्धिमान पुरुष इस जगतके मायाजालसे विमुख होकर वन प्रदेश में जाकर तप करते हैं ।। २४ ।। इसलिये हे सज्जनों, यदि तुम्हारी इच्छा समस्त दुःखोंसे रहित चिरस्थायी परम सुखामृत पीने की हो तो यह प्रक्षुब्ध सर्पादिक से युक्त क्षणभंगुर संसारका जीवन महान दुःख १ स घनिजो । २ सहृत, इत° । ३ स भवे जन्मनां । ४ स कामिनीवल्लभा । ५ स सकलं, झकला । ६ सom. प्रबल ७ स दुःखदां सदा संसृति । ८ स सुखासुखं । ९स सर्वाशुगं, "शुगां, "सुगं ।
SR No.090478
Book TitleSubhashit Ratna Sandoha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages267
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy