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________________ [ ११. जरानिरूपणचतुर्विंशतिः ] 269) अनयति वचो ऽव्यक्तं वक्त्रं सनोति मलाविलं स्वलयति गति हन्ति स्थान रेलमीकुरुते तनुम् । दहति शिखिवत्सा सर्वाङ्गीण यौवनकाननं गमयति वपन वा करोति जरा न किम् ॥ १ ॥ 270) जलपवनापातथ्वस्तप्रदीपशिलोपमें - रमलमिमैः " कामोदभूतेः सुखविवर्भिः । शमपरिचितो दुःखप्रान्तेः " सतामतिनिन्दितेरिति कृतमनाः शङ्क वृद्धः प्रकम्पयते' करो" ॥ २ ॥ 272) चलयति तनुं दृष्टेति करोति शरीरिणा रवयति लावव्यक्ति तनोति गतिशतिम् । जनमत कने ऽनुधा" निम्बामनर्थपरंपरां हरति सुरभि गन्धं बेहाज्जरा मदिरा मया ॥ ३ ॥ जरा वचः अव्यक्तं जनयति । वक्त्र मलाविलं तनोति । गति स्वस्पति, स्थाम हन्ति । तनुं लचीकुरुते । सर्वाङ्गीwatवनकाननं शिखिवत् दहति । मर्त्यानां वपुः वा गमयति । सा किं न करोति ॥ १ ॥ प्रबलपवनापातध्वस्त प्रदीपशिखोपमैः विषसं निर्भ:, रामपरिचितो दुःखप्रान्तैः सताम् अति निन्दितैः इमैः कामोद्भूतैः सुखैः अलम् अलम् इति कृतमनाः वृद्धः करो प्रकम्पयते (इति) शके ॥ २ ॥ जरा यथा मदिरा शरीरिणां तनुं चलयति । दृष्टेः भ्रान्ति करोति । बलात् अभ्यनतोषित बुढ़ापा आने पर मनुष्यके वचन अस्पष्ट निकलते हैं। श्वासके रुक जानेसे वह स्पष्ट बोल नहीं सकता । जीभ लड़खड़ाने लगती है । मुँह सर्वदा मलसे भरा हुआ रहता है। लार-कफ आदि भुंइसे बहने लगते हैं । यति स्वलित हो जाती है। पेरमें पेर अटक जाते हैं। स्थान कहिये सामर्थ्य नष्ट हो जाता है। शरीरके अवयव शिथिल हो जाते हैं। शरीर, हाथ-पाँव हिलने लगते हैं । शरीरको सब जवानी अग्निसे जलाये गये बनके समान खाक में मिल जाती है। अंतमें शरोरको गमाना पड़ता है। और क्या कहें यह बुढ़ापा इस मृत्युलोकमें स्थित जीवोंकी कौन-सी दुःखद अवस्था नहीं करता है। अर्थात् बुढ़ापा महान दुःखदायी है ॥ १ ॥ हमारा अनुमान है कि बुढ़ापेके कारण मनुष्यके जो दोनों हाथ कंपित होते हैं के मानों अपने अंतरंगके इस प्रकारके भाव प्रकट करते हैं कि- भाइयों ! हमने जो यौवन अवस्थामें काम जन्य सुख भोगे थे वे अब विषके समान हानिकारक सिद्ध हुए । आंधी के वेगसे बुझाई गई दीपकके लौ के समान विनश्वर निकले। जिनका सब जीवोंको समान परिचय है और दुःख ही जिनका अंत है, ऐसे इन विषयोंकी सज्जन पुरुष सदा निंदा ही करते हैं । तुच्छ समझते हैं । कदापि उनको नहीं चाहते। ऐसा मनमें भाव रखकर ही मानों यह वृद्ध पुरुष अपने दोनों हाथ हिलाता है । ऐसा हम अनुमान करते हैं || २ || जिस प्रकार मदिरा पीने से शरीर चल-विचल होता १ स व्यक्तं । २ स इलयों, दलधीं, ग्लषां, स्थलों, स्थली । ३ स "सर गर्वागना यो", "त्सर्धानांनग° ° सर्वानंगेन यौ सर्व्वेषां गतयो । ४ स म । ५ स रलमलनिश्च, मलनिनः, मलनिनिस्वः, मलसिमैः, मलनिचेः । ६ स समपरिचितेः परिचितो७स प्राप्तः प्राप्तः । ८ स प्रकृपायते । ९स कनो, करें । १० स दृष्टे । ११ स नुचा ।
SR No.090478
Book TitleSubhashit Ratna Sandoha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages267
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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