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________________ [ २८. धर्मनिरूपणद्वाविंशतिः ] 690) अवति निखिललोकं यः पितवाहतास्मा वहति दुरितराशि पावको' वेन्धनोधम् । वितरति शिवसौख्यं हम्ति संसारखg विवषतु शुभमुखधा तं पुषा धर्ममत्र ॥१॥ 691) अनन जलधिमज्जज्जन्तुनियाजमित्र विवधति जिनधर्म ये नरामादरेण । कथमपि नरजम्म प्राप्य पापोप्रशान्ते विमलमणिमनष्यं प्राप्य से बर्जयन्ति ॥२॥ 692) बति निखिललोकः शब्दमात्रेण धर्म विरचयति विद्यारं आतु नो को ऽपि तस्य । ब्रजति विविषभेवं शब्दसाम्ये ऽपि धर्मों जगति हि गुणतोऽयं क्षीरवत्तवतोत्र ॥३॥ यः अत्र पितेव आवृतात्मा निखिललोकम् अवति । पावकः इन्धनोघं वा दुरितराशि दहति । शिवसोस्यं वितरति संसारश हन्ति । बुधाः शुभयुष्या तं धर्म विदधतु ॥ १॥ ये नराः पापोपशान्तेः कथमपि नरजन्म प्राप्य जननजलधिमज्जवन्तुनिजिमित्रं जिनधर्मम् आदरेण न विवति, ते अनर्घ्य विमलमणि प्राप्य वर्जयन्ति ॥ २ ॥ निखिललोक: शब्दमात्रेण धर्म यति । आतु तस्य कोऽपि विचारं नो विरचयति । अन्न जगति अयं धर्मः शन्दसाम्मेऽपि गुणतः तत्वतः क्षीरवत् जो विशुद्ध धर्म यहाँ समस्त प्राणियोंकी पिताके समान रक्षा करता है, जिस प्रकार अग्नि इन्धनके समूहको जला देती है उसी प्रकार जो पापके समूहको जला देता है, जो मोक्ष सुखको देता है, तथा जो संसाररूप शत्रुका घात करता है उस घमंको विद्वान् पुरुष निर्मल बुद्धिसे धारण करें ॥१॥जो मनुष्य जिस किसी प्रकार तीय पापके उपशान्त होनेसे मनुष्य जन्मको पा करके भी संसाररूप समुद्र में डूबते हुए प्राणियोंका उससे निष्कपट मित्रके समान उद्धार करनेवाले जिनधर्मको आदरपूर्वक नहीं धारण करते हैं वे अमूल्य निर्दोष मणिको पा करके भी छोड़ देते हैं। अभिप्राय यह है कि जो मनुष्य दुर्लभ मनुष्य पर्यायको प्राप्त करके धर्मको नहीं धारण करते हैं वे अनन्त संसारमें परिभ्रमण करते हुए दुःसह दुखको सहते हैं। उन्हें वह मनुष्य पर्याय फिरसे बड़ी कठिनता. से प्राप्त हो सकेगी ॥२॥ संसारमें समस्त जन शब्द मात्रसे धर्मको कहता है, परन्तु कोई उसका विचार कभी भी नहीं करता है । यह धर्म शब्दकी समानता होने पर भी गुणको अपेक्षासे वास्तवमें दूधके समान अनेक भेदको प्राप्त होता है ॥ ३ ॥ विशेषार्थ--जिसप्रकार गाय, भैंस और बकरी आदिका दूध 'दूध' इस नामसे समान हो करके भी सुपाच्यत्व आदि गुणको अपेक्षा अनेक प्रकारका होता है उसी प्रकार वैदिक, बौद्ध एवं जैन आदि धर्म 'धर्म' इस नामसे समान होने पर भी फलदानको अपेक्षा अनेक प्रकारका है-कोई धर्म यदि स्वर्ग-मोक्षका देनेवाला है तो कोई नरकादि दुःखका भी कारण है । इसलिये जिस प्रकार अपनी-अपनी प्रकृति १सपादकेवे। २स विदधति । ३ स जननि । ४ स शाम्ये । ५ स गुणतोयं । ६ स तत्वता ।
SR No.090478
Book TitleSubhashit Ratna Sandoha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages267
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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