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________________ 207 : ८-२८] ८. ज्ञाननिरूपणात्रिंशत् 203) वरं विर्ष भक्षितमुग्रदोवं वरं प्रविष्ट ज्वलने तिरौ। वरं कृतान्ताय निवेदितं स्वं न जीवितं तत्वविवेकामुक्तम् ॥ २४ ॥ 204) 'शौनक्षमासत्यतपोवमाछा गुणाः समस्ताः भवतश्वसन्ति। ज्ञानेन होनस्य नरस्य लोके वारपाहता पातरपि मूछाद ॥ २५ ॥ 205) माता पिता बन्यजनः कम पुत्रः सुहर भूमिपतिश्च तुष्टः। न तत्सुखं कर्तुमलं नरानां ज्ञानं यदेव स्पितमस्तकोषम् ॥ २६॥ 206) शक्यो पशोकसुमिमो ऽतिमत्तः सिंहः फलोगः कुफ्तिो नरेनः। ज्ञानेन होनो न पुनः कर्मचिविस्यस्म पूरेण भवन्ति सन्तः ॥२७॥ 207) करोति संसारशरीरभोगविरागभावं विदधाति रागम् । शीलवतध्यान तपःकृपासुशानी विमोक्षाय कुस'प्रयासः ॥ २८॥ ज्वाने प्रविष्टं परम् । कृतान्ताय स्वं निवेदितं परम् । तत्त्वविवेकमुक्तं जीवितं न (वरम्) ।। २४ ।। वास्याहताः तरक: मुलात वा लोके ज्ञानेन होनस्य नरस्य शौचक्षमासस्यतपोदमाणः समस्ताः अपि गणाः क्षणतः फलन्ति ॥ २५ ॥ अस्तवोपं स्षितं ज्ञानं नराणां यदेव सुखं कर्तुम अलम, तत सुखं माता, पिता, बन्जनः करून, पत्रः, महत, तुष्टः भमि R विलम १२६।। अतिमतः इभः, सिंहः, फणीन्द्रः, पितः मरेन पीकतुं शस्यः । पुनः शानेन हीनः (नर)कषित् म। इति सन्तः अस्य दूरेण भवन्ति ॥ २७ ॥ मानी विमोक्षाय स्वप्रयासः (सन्) संसारगारीरभोगविरागमावं करोति । रहते हैं ॥ २३ !। ज्ञान प्राप्तिके लिये कितने भी संकट आये, कदाचित् भयंकर हालाहरू विष खानेका भी प्रसंग आवे तो अच्छा, अथवा भयंकर अतिरुद्ध अटवीमें प्रवेश करनेका मी प्रसंग आवे तो अच्छा, अग्निमें जलकर भस्मसात हो जाना अच्छा, अथवा अन्त में अन्य भी किसी कारणसे यमराजको गोदमें चला जाना अच्छा । परंतु सत्त्व शानसे रहित होकर जीना इस संसारमें अच्छा नहीं है। ज्ञानहोन जीवन इन भयंकर दुःखोंसे भी महान दुःख है ॥ २४ ॥ जिस प्रकार आँधीके वेगसे वृक्ष मूलसे उखड़ कर गिर पड़ते है, उसी प्रकार जो पुरुष शानसे हीन होते है, अज्ञानमय जीवन जीते हैं उनके शुचिता-पवित्रता-समा-सत्य-तप-संयम इत्यादि समस्त गुण क्षणमात्रमें नष्ट हो जाते हैं । विशेषार्थ-अज्ञानी जीव प्रसंग आने पर क्षमादि गुणोंसे च्युत होते हैं। परंतु जानी कितना भी संकट आने पर भी गुणोंसे ध्युत नहीं होते। दृढ़ प्रतिज्ञ होकर गुणोंका पालन करते हैं ॥ २५ ।। इस जीवको निर्दोष पवित्र शान जो सुख देता है वह सुख संतुष्ट हुये माता-पिता-बन्धुजन, स्त्री-पुत्र-भित्र तथा प्रसन्न हुआ राणा भी नहीं दे सकता। विशेषार्ष-माता-पिता आदि कौटुबिक जन स्वार्थ वश भौतिक पदार्थ ऐश्वर्य देकर सुख देने वाले प्रतीत होते हैं 1 परंतु वह सुख सच्चा सुख नहीं है । अंतमें उसका कटु फल दुःख हो । प्राप्त होता है। परंतु भान ऐसा सुख देता है जो कि कभी भी नष्ट न होकर दिन दूना बढ़ता ही जाता है ॥ २६ ॥ लोक मदोन्मत्त हाथीको अंकुशके सहायसे वशमें ला सकते हैं, कुपित सिंह, सर्प या राजाको भो किसी प्रकार शांत कर सकते हैं। परंतु ज्ञानसे-विवेकसे होन पुरुषको किसी भी प्रकारसे सुमार्ग पर लाना महान कठिन है। इसलिये संत लोक ज्ञानसे कभी दूर नहीं रहते । ज्ञानके उपार्जनसे कभी भी अपना मुंह नहीं मोड़ते । सदैव शानमें तत्पर रहते हैं ।। २७ ।। जो ज्ञानी होते हैं वे सदैव संसार-शरीर-भोगोंसे सहज उदासीन रहते हैं। विषय वासनाओंमें कभी फसते नहीं । सदा विरक्त रहते हैं। और शील-वत-ध्यान-तप-दया आदिका पालन करने में अनुराग रखते हैं । संसार दुःखसे मुक्त होनेके लिये प्रयत्न करते हैं । आत्मज्ञानमें, ध्यानमें सदैव लोन १ स सोचं, सौच्यं, शोनं। २ स दुष्टं । ३ स यदेवं । । स दूरेन, दूरे नः । ५ स तपःदयासु । ६ स कृतः प्रयासः ।
SR No.090478
Book TitleSubhashit Ratna Sandoha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages267
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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