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सुभाषितसंदोहः
[ 199 : ८-२० 199) क्षेत्रे प्रकाशं नियतं करोति रविधिने स्तं पुनरेव रात्री।
ज्ञानं त्रिलोके सकले प्रकाशं करोति नाच्छावनमस्ति किंचित् ॥ २० ॥ 200) भवार्णवोत्तारणपूतनावं निःशेषदुःखेन्षनवावलिम् ।
दशानभम न करोति येन ज्ञानं तविष्टं न लिनेमचन्द्रः ॥ २१ ॥ 201) गम्तुं समुल्लय भवाटबों यो शानं विना मुक्तिपुरों समिन्छेत् ।
सोज्यो जयकारेषु विलाध्य दुर्ग वनं पुरं प्राप्तुमना विधनुः ॥२२ ।। 202) ज्ञानेन पुंसा सककार्यसिविर्शानाहते काचन मार्षसिविः। .
शामस्य मवेति गुणाम् कवाधिमान र मुम्बन्ति महानुभाषाः ॥ २३ ॥ निवृत्तिः न अस्ति । ततः हिते प्रवृत्तिः । ततः पूजितकर्मनावः न । ततः अभीष्टं सौश्यम् अपि न लभते ॥ १९ ॥ रविः दिने क्षेत्रे नियतं प्रकाशं करोति । पुनः रात्री बस्सम् एव करोति । ज्ञानं सकले त्रिलोके प्रकाशं करोति । (तस्य) पाच्छादनं किंचित् अस्ति ॥ २० ।। येन भवाणवोसारणपूतनावं निःशेषदुःलेन्धनवावहिं दशाङ्गधर्म न करोति, तत् जान जिनेन्द्रचन्द्र ने इष्टम् ॥ २१ ॥ यः शानं विना मवाटवी समुल्लष्य मुक्तिपुरों गन्तुं समिन्छेत्, सः अन्धकारेषु दुर्गं वनं विलय पुरं प्राप्तुमना: विचक्षुः बन्धः (एव) ॥ २२ ॥ पुंसां जानेन सकलार्वसिद्धिः । ज्ञानादृते काचन अर्थसिद्धिः न । इति ज्ञानस्य गुणान् मत्वा महानुभावाः कदाचित् शान न मुम्वन्ति ॥ २३ ॥ उग्रदोषं विषं भक्षित्रं परम् । अतिरोने
बलसे ही अशुभसे निवृत्ति कर शुभमें प्रवृत्ति करता है। जानसे ही उसके पूर्वोपार्जित कोका नाश होकर शाश्वत सुख मिलता है ॥ १९ ॥ सूर्य तो केवल दिनमें ही अपने नियत क्षेत्रमें नियत परिमिप्त प्रकाश ही करता है। रात्रिमें अस्तको प्राप्त होता है। मेघोंके आच्छादनसे उसका प्रकाश रुक जाता है। परन्तु ज्ञानका प्रकाश संपूर्ण तीन लोकमें और अलोकमें भी, तया भूत-भविष्य-वर्तमान तीनों कालोंमें सदा सर्वदा दिन-रात बिना रोक-टोक होता है। इसलिये ज्ञानका प्रकाश सूर्य प्रकाशसे भी अधिक है ॥ २० ॥ जानका फल क्षमा. दिक दशधोका पालन करना है। दशधौका पालन संसाररूपी समुद्रसे पार होनेके लिये पवित्र नावके समान है। अथवा संपूर्ण दुःख रूपी इंघनको मस्मसात् करर्नेवाले दावानलके समान है। अर्थात् जो दशधर्मोका पालन करता है वही संसार समुद्रसे पार हो सकता है। और संसारके समस्त दुःखोंसे मुक्त होता है। परन्तु जो शानी होकर भी दशधोका पालन नहीं करते उनके ज्ञानको सर्वस देवने ज्ञान ही नहीं कहा है। विशेषायं"हतं ज्ञानं क्रियाहीन" जो ज्ञान क्रियाशील नहीं है वह जान सच्चा ज्ञान हो नहीं है । क्रियाशून्य मान-चारित्र रहित शान सम्यग्ज्ञान नहीं है । ज्ञानका फल अहितसे निवृत्ति और हिसमें-धर्ममें प्रवृत्ति करना है। जो शान धर्ममें प्रवृत्त नहीं वह शान फलदायक न होनेसे वास्तव में प्रान नहीं कहा जाता ॥ २१ ॥ जो पुरुष मानके बिना इस संसाररूपी पृथ्वीको पार करके मुक्तिपुरीको जाना चाहता है वह आंखोंसे हीन अन्धा पुरुष गहन अन्धकारमें गहन वनको पार करके नगरको जाना चाहता है। अर्थात् जैसे अन्धे मनुष्यका रात्रिके घोर अन्धकारमें गहन वनको पार करके नगरमें पहुंचना संभव नहीं है वैसे ही प्रानके बिना संसाररूप गहन वनको पार करके मोक्ष प्राप्त करना संभव नहीं है ।। २२ ॥ इस संसारमें समस्त पुरुषोंको ज्ञानसे ही समस्त प्रयोजनोंकी सिद्धि होती है । ज्ञानके बिना केवल क्रियाकांडसे किंचित मात्र भी इष्ट सिद्धि नहीं होती। इस प्रकार मानका महत्त्व जानकर अपना हित चाहने वाले संत पुरुष ज्ञानको कभी भी छोड़ते नहीं। सदैव ज्ञानके उपार्जनमें लगे
१स नियति । २ स सकल । ३ स विचाषुः ।