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________________ 507 : २०-१०] २०. मद्यनिषेधपञ्चविंशतिः 503) व्यसनमेति जनैः परिभूयते गदमुपैति न सत्कृतिमश्नुते । भजति नीचजनं व्रजति कलम किमिह कष्टमियति न मद्यपः ॥ ६॥ 504) प्रियतमामिव पश्यति मातरं प्रियतमा जननीमिव मन्यते । प्रचुरमद्यविमोहितमानसस्तविह नास्ति.न यत्कुरुते जनः ॥७॥ 505) अहह कर्मकरीयति भूपति नरपतोयति कर्मकरं नरः । जलनिधीयति कूपमा निर्षि गतजलीयति मनमा कुलः ॥ ८ ॥ 506) निपतितो पवते धरणीतले वमति सर्वजनेन विनिन्द्यते। श्वशिशुभिर्वदने परिचुम्बिते बप्त सुरासुरतस्य च मूत्र्यते ॥९॥ 507) भवति जन्तुगणो मदिरारसे "तनुसभुविविषो रसकायिकः। पिवति तं मदिरारसलालसः अति दुःखममुत्र ततो जनः ॥ १०॥ -..---. ..-- नृतं वाक्यं वदति । परकलधनानि अपि वाञ्छति । किम न कुत्ते ।। ५ ।। मद्यपः म्यसनम् एति, जनैः परिभूयते, गदम् उपैति, सत्कृति न अश्नुते, नीनजनं भवति, क्लमं प्रजति । इह कि काटन इयति ॥ ६ ॥ प्रचुरमद्यविमोहितमानसः जनः मातरं प्रियतमाम् इव पश्यति । प्रियतमा जननीम् इव मन्यते । यत् [ सः ] न कुरुते, इह तत् नास्ति ॥ ७ ॥ मद्यमदाकुल: नरः अहह भूपति कर्मकरीयति, कर्मकरं नरपतीति, कूप जलनिधीयति, अपां निर्षि गतजलीयसि ॥ ८॥ सुरासु रतस्य श्वशिशुभिः परिचुम्बिते वदने मूश्यते । [ सः ] धरणीतले निपतितः घदते, वमति, सर्वजनेन विनिन्धते बत ॥ ९॥ मदिरारसे तनुतनुः विविधः रसकायिकः जन्तुगणः भवति । मदिरारसलालसः जनः तं पिबति, ततः अमुत्र दुःखं श्रयति ।। १० ॥ परस्त्री एवं परधनकी इच्छा करता है ॥ ५ ॥ मद्यको पीनेवाला मनुष्य आपत्तिको प्राप्त होता है, वह मनुष्योंके द्वारा तिरस्कृत किया जाता है, रोगको प्राप्त होता है, सत्कारको कभी नहीं पाता है, नीच जनकी सेवा करता है, और खेदका अनुभव करता है। ठीक है वह यहां कौन-से कष्टको नहीं प्राप्त होता है ? अर्थात् मद्यपायो मनुष्य सब ही प्रकारके कष्टको सहता है. ॥ ६ ॥ मद्यपायी मनुष्य माताको वल्लभाके समान और वल्लभाको माताके समान मानता है। ठीक है--जिस मनुष्यका मन मद्यकी अधिकतासे मोहको (अज्ञानताको) प्राप्त हुआ है वह यहाँ ऐसा कोई भी कार्य नहीं है जिसे न करता हो । अभिप्राय यह कि मद्यको पीनेवाला मनुष्य सब हो अविवेकपूर्ण कार्योंको करता है ।। ७ ॥ खेद है कि मद्यके नशेसे व्याकुल हुआ मनुष्य राजाको तो सेवकके समान समझ लेता है और सेवकको राजाके समान मान बैठता है। उसे कुआं तो समुद्र के समान विशाल दिखता है और अपार जलवाला समुद्र निर्जल प्रतीत होता है ।। ८ ।। जो मनुष्य मद्यपानमें मासक्त होता है वह पृथिवीके ऊपर गिरकर अकदाद करता है, वमन { उल्टी ) करता है, तथा सब मनुष्योंके द्वारा निन्दित होता है । खेद है कि कुत्तके बच्चे ( पिल्ले ) उसके मुहको चूमकर उसमें मूत भी देते हैं ।। ९॥ मद्यके रामें रसरूप शरीरको धारण करनेवाले सूक्ष्म शरीरके धारक अनेक प्रकारके क्षुद्र जीवोंका समुदाय होता है। चूंकि मद्यके स्वादको अभिलाषा रखनेवाला मनुष्य उस मद्यका पान करता है इसीलिये वह परलोकमें दुःखको सहता है ॥ १० ॥ मनुष्य मद्यको पी करके कष्टको ( या विनाशको ) प्राप्त होता है, धनका नाश करता है, १ स मथुते, "मश्नुतो। २ स क्षमं । ३ स जने, जनं। ४ स कूपमा विधि । ५ स °महाकुलः । ६ स वदति । ७ स 'तलं । ८ स वदनं परि सुम्यते । ९ स मूत्रति, मूत्रते । १७ से "गुणो। ११ स तनु तनु । १२ स "कायकः। १३ स पिबति....मदिराशति । सु. सं. १९
SR No.090478
Book TitleSubhashit Ratna Sandoha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages267
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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