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________________ - [४. लोभनिवारणविंशतिः] 63) शीतो रविर्भयति शीतरुधिः प्रतापी स्तब्ध नमो जलनिधिः सरिदम्बुवप्तः । स्थायी मरुद्विदहनो दहनो ऽपि जातु लोमानलस्तु न कदाविदाहक स्थात् ॥१॥ 64) लब्धेन्धनज्वलनवलक्षणतोऽतिवृधि लामेन लोभवानः समुपैति जम्तोः। विद्यागमनततपःशैमसंयमादीन मसीकरोति थमिमां व पुनः प्रमः॥२॥ 65) वित्ताशर्या खनति भूमितलं सवृष्णो धातून गिरेधमतिः भवति भूमिपाने।। देशान्तराणि विविधानि विगाहते च पुण्यं विना न पनरो लभते स सृप्तिम् ॥ ३॥ 66) वर्धस्य जीव जय नन्द चिरं विभो त्वमित्यादिचाटुवचनानि विभाषमाणः । दीनाननो मलिननिन्दितपधारी लोभाकुलो वितते सधनस्य सेवाम् ॥४॥ जातु रविः शीतः भवति शीतरुचिः प्रतापी भवति नभः स्तब्ध (स्तम्भित) भवति जलनिधिः सरिदम्बुतप्तः भवति भयत स्थायी भवति दहनः अपि विदहनः भवति। तु लोभानल: कदाचित् अदाहकः न स्यात् ॥ १॥ जन्तोः लोभवहनः लाभेन लब्धेन्धनज्वलनवत् क्षणतः अतिवृद्धि समुपैति । पुन: प्रवृद्धः सः यमिना विवागमत्रततपःशमसंयमादीन् भस्मीकरोति ॥ २॥ सतृष्ण: नरः वित्तापाया भूमितलं खनति गिरेः धातून धमति भूमिपाये धावति व विविधानि देवान्तराणि विगाहते (किंतु) पुण्यं विना सः नरः सुप्ति न च लभते ॥ ३॥ लोभाकुल: हे विभो, त्वं चिर वर्धन जी अम नन्द इत्यादिचादवचनानि विभाषमाणः दीनाननः मलिननिन्दितस्पधारी सन् सघनस्य सेवां कुते ॥४॥ सूर्य कदाचित् स्तब्ध हो सकता है, चन्द्रमा कदाचित् तीक्ष्ण हो सकता है, आकाश कदाचित त्तन्य हो सकता है-सीमित या स्थानदान क्रियासे शून्य हो सकता है, समुद्र कदाचित् नदियों के जसे सत्ता हो सकता है, वायु कदाचित् स्थिर हो सकती है, तया अग्नि मी कदाचित् दाइक्रियासे रहित हो सकती है; परन्तु लोमरूप अग्नि कभी भी दाह कियासे रहित नहीं हो सकती है । [तात्पर्य यह कि जिस प्रकार सूर्य आदि कभी अपने स्वभावको छोडकर शीतलता आदिको नहीं प्राप्त हो सकते हैं उसी प्रकार शोभ भी कमी अपने स्वभावको छोडकर मनुष्यकी तुष्णाको शान्त नहीं कर सकता है । जिस प्रकार अग्नि इन्धनको प्राप्त करके क्षणभरमें ही अतिशय वृद्धिको प्राप्त हो जाती है उसी प्रकार. प्राणीको. लोभरूप अग्नि भी धन आदि अभीष्ट वस्तुओंके लाभसे. अतिशय वृद्धिको प्राप्त होती है। इस प्रकारसे वृद्धिंगत होकर वह संयमी जनोंके विद्या, आगमज्ञान, व्रत, तप, शम, और संयम आदि गुणोंको भस्मसात् कर देती है-नष्ट कर देती है ॥२॥ तृष्णायुक्त मनुष्य धनकी आशासे पृथिवीतछको खोदता है, पहाडकी धातुओंको तपाता है, राजाके आगे दौडता है, और अनेक प्रकारके देशोंमें जाताआता है। परन्तु वह पुण्यके विना सन्तोषको नहीं प्राप्त होता है |॥ ३ ॥ लोभसे पीडित मनुष्य हे प्रभो ! तुम वृद्धिको प्राप्त होओ, तुम चिरकाल तक जीवित रहो, तुम्हारी जय होवे, तुम चिरकाल तक समृद्ध रहो, इत्यादि खुशामदी वचनोंका उच्चारण करता है। मुखपर दीनताका भाव प्रगट करता है, तथा मलिन और निन्दित वेष-भूषाको धारण करता हुआ धनत्रान्की सेवा करता है ॥ ४ ॥ १ स सदेहदहनो, महमदहनो । २ स यातु । ३ स दाहकं । ४ स यंतोः । ५ स "सम" । ६ स विताशयः । •स विभो चिरं। ८ स 'वेषधारी ।
SR No.090478
Book TitleSubhashit Ratna Sandoha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages267
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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