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________________ [ १२. मरणनिरूपणषड्विंशतिः ] 293) संसारे भ्रमता पुराजितवशाचुःखं सुखं वास्तुता' चित्र जीवितभगिनां स्वपरतः संपण्मानापदाम् । वन्तान्तःपतितं मनोहररसं कालेन पक्वं फलं स्थास्यत्यत्र कियच्चिरं तनुमतस्तीवक्षुषा चवितम् ॥ १॥ 294) नित्यं व्याधिशता कुलस्य विधिना संक्षिप्यमानायुषो नाश्चयं भवतिनः श्रममतो' यज्जायते पचता। कि नामावभुतमन्त्र काननतरोरत्याकुलात्पक्षिभि यत्प्रोद्यत्पवनप्रतापनिहतात्त्यक्तं फलं भ्रश्यति ।। २ ॥ 295) निर्घतान्यवलो ऽविचिन्त्य महिमा प्रध्वस्तदुर्गक्रियो विश्वव्यापिगतिः कृपाविरहितो दुर्दोषमन्त्रः शठः । "शस्त्रास्त्रोवकपावकारिपवनव्याष्यादिनानायुषो . गर्भावावपि हन्ति जन्तुमखिलं दुरवीयों' यमः ॥३॥ संसारे भ्रमतां पुराजितवशात् दुःखं सुखं वा अश्नुतां स्वपरतः संपधमानापदाम् अङ्गिना जीवितं चित्रम् । सनुमतः पन्तान्तःपतितं मनोहररसं कालेन पक्वं तीनक्षुधा नबितं फलं किच्चिरम् अत्र स्थास्पति ॥ १॥ नित्यं व्याधिशताकुलस्य विधिना संक्षिप्यमाणायुषः श्रममतः भवर्तिनः यत् पञ्चता जायते [ तत् ] न आश्चर्यम् । पक्षिभिः अस्याकुलात् प्रोवत्यवनप्रतापनिहतात् काननतरोः त्यक्तं यत् फलं भ्रश्यति अत्र किं नाम अद्भुतम् ॥ २॥ निघूतान्यवल: अविचिन्त्यमहिमा प्रध्यस्तदुर्गक्रियः विश्वव्यापिगतिः कृपाविरहितः दुर्योधमन्त्रः शठः शस्त्रास्त्रोदकपावकारिपवनव्याध्यादिनानायुधः दुरणीयः पूर्व जन्ममें उपार्जित पुण्य-पाप कर्मोके वश दुःख सुखको भोगते हुए संसारमें भ्रमण करने वाले और अपने या दूसरों के द्वारा की गई विपत्तियोंका सामना करने वाले प्राणियों का विचित्र जीवन तीव्र भूखसे पीड़ित मनुष्यके दांतोंके बीचमें चबाये हुए मधुर रससे भरे और समय पर पके फलके समान कितने समय तक ठहर सकता है। अर्थात् जैसे मधुर रससे भरा और यथा समय पका फल सोख भूखसे पीड़ित मनुष्यके दांतोंके द्वारा चबाया जाने पर उसके पेटमें चला जाता है उसी प्रकार मनुष्यका जीवन भी आयु पूर्ण होने पर समाप्त हो जाता है ॥ १॥ नित्य हो सैकड़ों रोगोंसे पोड़ित और दैववश क्षीण आयु के धारक तथा परिश्रमसे थके संसारी प्राणीका जो मरण होता है इसमें कोई अचरण नहीं हैं। क्योंकि पक्षियोंसे अत्यन्त घिरे रहने वाले वनके वृक्षसे पका हुभा फल प्रचण्ड वायुके झोंकोंसे आघात पाकर गिर जाता है इसमें क्या अचरजकी बात है ।। २ ।। यह यम बड़ा ही बलवान है इसके सामने किसीका बल काम नहीं देता। यह सबको निर्बल कर देता है। दुर्ग आदिमें छिपनेसे भी काम नहीं चलता। यह वहाँ भी पहुंच जाता है। इसकी गति विश्वव्यापी है। इसे दया भी नहीं है। इसका मन्त्र किसी की समझमें नहीं आता। यह बड़ा दुष्ट है। शस्त्र, १स वाश्रुता, वाश्रता । २ स चैवं, वेत्र, चैत्रीं। ३ स तीवं । ४ स वचित, चचितं, चम्नितं । ५ स शाता, सता, शिता । ६ सश्रमतो। ७ स निहितात्पक्वं । ८ स भ्रशति, भ्रस्यति । ९ स विचित्य, चिस्य । १० स शस्त्री ध्याधादिनानापुषो । ११ स वीयर्या मम, वीर्योपमः। मु. सं. ११
SR No.090478
Book TitleSubhashit Ratna Sandoha
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorBalchandra Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1998
Total Pages267
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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