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सुभाषितसंदोहः 743) समानदर्शन चरित्र'जलं क्षमोमि
कुजानवर्शनचरित्रमलावमुक्तम् । यत्सकममलमुजि नवाक्यतीयं
स्मानं विववमिह नास्ति जलेन शुद्धिः॥४॥.... 744) तीर्थेषु वेत्क्षयमुपैति समस्तपापं
स्नानेन तिष्ठति कर्थ पुषस्व पुण्यम् । नेफस्य पन्धमल्यो तयोः शरीरे।
दृष्टा" स्थितिः ससिलशुद्धिविषो समाने ॥५॥ 745) तीर्थाभिषेकशतः सुगति जगत्या
पुग्यविनापि यदि यान्ति नरास्तदेते। नानाविषोकसमुदभवजन्तुवर्गा' 'बालत्वचाश्मरणान्न कथं प्रजन्ति ॥६॥
इह स्नान विवध्वम् । जलेन शुचिः न अस्ति ॥ ४॥ तीर्येषु स्नानेन समस्तपापं भयम् उपैति चेत् पुरुषस्य पुण्यं कवं तिष्ठति । सलिलादिविषो समाने, पारीरे धृतयोः गन्धमलयोः एकस्य स्थितिः न दृष्टा ॥ ५ ॥ जगत्यां नराः यदि पुयः विना अपि तीर्थाभिषेकवशतः सुगति यान्ति, तत् एते नानाविषोदकसमृद्भवजन्तुवर्गाः बासत्वचारुमरणात् (सुगति) कपं न
सम्यग्दर्शन और सम्यकचारित्र रूप जलसे परिपूर्ण, क्षमारूप लहरोंसे सहित; मिथ्याशान, मिथ्यादर्शन और मिप्याचारित्र रूप मलसे रहित सया समस्त कर्ममलसे मुक्त है उसमें स्नान करो। कारण कि जलके द्वारा अन्तरंग शुद्धि नहीं हो सकती है ॥ ४॥ यदि तीर्थोंमें स्नान करनेसे पुरुषका समस्त पाप नष्ट हो जाता है तो फिर पुण्य केसे शेष रह सकता है ? उसे भी नष्ट हो जाना चाहिये। कारण यह कि जलसे शुद्धिके विधानके समान होने पर शरीरमें धारण किये गये गन्ध द्रव्य और मल इन दोनोंमें से एक कोई शेष रहा नहीं देखा गया है॥५॥ विशेषार्थ-जो लोग यह समझते हैं कि गंगा मादि तीर्थोमें स्नान करनेसे मनुष्यका पाप नष्ट हो जाता है और पुण्य वृद्धिंगत होता है उनको लक्ष्य करके यहां यह बसलाया है कि जलमें स्नान करनेसे जिस प्रकार शरीरगत मलके साथ ही उसमें लगाया गया सुगन्धिस लेपन आदि भी नष्ट हो जाता है उसीप्रकार सीर्थमें स्नान करनेसे पापके साथ ही पुण्य भी घुल जाना चाहिये। कारण कि उन दोनोंके शरीरमें स्थित होने पर उनमेंसे एक (पाप) का विनाश और दूसरे ( पुण्य ) का शेष रह जाना युक्तियुक्त नहीं प्रतीत होता है। तात्पर्य यह कि तीर्थ स्नानसे बाह्य शारीरिक मल ही दूर किया जा सकता है, न कि अभ्यन्तर पापमल । अतएवं उसको दूर करनेके लिये समीचीन रलत्रयको धारण करना चाहिये ॥५॥ संसारमें पुण्यके बिना भी यदि केवल तीर्थमें किये गये स्नानके प्रभावसे ही मनुष्य सुगतिको प्राप्त होते हैं तो फिर ये जलमें उत्पन्न होनेवाले अनेक प्रकारके प्राणिसमूह बाल्यावस्थासे मरणपयन्स जलमें ही स्थिति रहनेसे क्यों नहीं सुगतिमें जाते हैं ? उन्हें भी सुगतिमें जाना चाहिये। परन्तु ऐसा नहीं होता है, अतएव निश्चित है कि सुगतिका कारण प्राणीका पूर्वोपार्जित पुण्य है, न कि तीर्थस्नान ।। ६ ॥ जो शरीर वीर्य व रजसे उत्पन्न हुआ है, दुर्गन्धसे व्याप्त है,
१ स चारित्रजल । २ स मुक्तिन । ३ सध्त यो, तयोः, (तयोः । ४ स शरोरं । ५ स दृष्टवा [:] । ६ सस्तदेतो, स्तदंते, स्तदेवः 1 ७ स वर्गा | ८ स वालव', कांस', पालत्ववास । १ स मरणोन्न ।